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( ३३४ ) बीजक कबीरदास । जब नामस्मरण न कियो साई शरीर रूपी माड़ी याके माड़ि रह्योहै कहे लपटि रही है औ कोरिनके जब वाको मात्रै हैं तब मांडी सम वैजाइहै औ मल छुटि जाइहै । इहां त्रिभुवननाथ नो मनहै सो रेचक कुंभक पूरक ने कूच तितमें मांजनलग्यो कहे नामको जपनलग्यो औ जीवको माड़ी जॉहै चारो शरीर तिनको सम कै दियो कहे एक करिदियो औ । कोरिनके मांजत में जब तागा टूट जाइहै तौनेको सुरेरिकै जोर देइहै सो मुररिया कहावैहै इहां नामके स्मरण में जब बचपरै है तब कहीं श्याम कहीं गोपाल कहीं कृष्ण इत्यादिक नाम लैकै धागा नोरिदेइहै। औ कोरिनके दुइगोडा कहे दुइ घोरियाके बीचमें ताना तनहूँ मैं इहां चांद सूर्य जे इड़ा पिंगला तिनके बीच में दीप जौ सुषुम्णा नाड़ी है ताको ताना किया। ताना वाको काहेते कह्यो कि, वह साहबके लोकते लै मूलाधारचक्र कौं रश्मिरूप तनी हैं जीवही सुधृष्णा नाड़ी द्वै भक्तन को जी उतरै चढ़े है ॥२॥ पाई करिके भरना लीन्हो वे बांधे को रामा वे ये भरितिहुँ लोकै बांधै कोइ न रहै उवाना। तीन लोक यक करिगह कीन्हो दिगमग कीन्हो तानै आदि पुरुष वैठावन बैठे कविरा ज्योति समाना ॥ ३॥ कोरिनके इहां पाई साफ करिबैको कहै हैं औ कमठिनके बीचते सूत निकासी लेइहै सो भरना कहाँवै है सो इहां चारो शरीर माडी माजिकै कहे चारयो शरीर छोड़ायकै जीवको साफ कार के कहे सूक्ष्म बिचारते जीव को स्वरूप निकस्यो कि, रामहीको है औरेको नहीं है औ कोरीनके राक्षकी जो कमठी ताके छिद्र है सब सूतको निकासीलेई है औ दुइ सूत बांधिदेइह से वे कहाबैहैं । तीनि फेरी कारकै सूतको गांसि देई है सो तिलोक कहावै है । औ उबान वह कहावै है जो बाहर सूत रहनाईंदै सो उबान न रहिगयो सो इहां दोनों कुंभकमें राम जे दुइबर्ण हैं रकार मकार तिनको बांधि दियो । बहिरे जब श्वास जाईहै तब जहांते बँभिकै लौटै है सो कुंभक कहावै है। तहारकार जपे है तब सूर्य के प्रकाशको भावनाकैरै है औ जब भीतर श्वास नाईहैं। । बैंभिकै लौटै है तहां मकार जैपै हैं तब चन्द्रमाको प्रकाशको भावना करै है।