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शब्द । | ( ३३३ ) जोलहा वीनेहु हो हरि नामा।जाके सुर नर मुनि धरै ध्याना। ताना तनैको अउठा लीन्हे चर्वी चारिहु वेदा । सरवूटी यक राम नरायण पूरण कामहि माना ॥ १ ॥ | श्रीकवीरजी कहै कि, नेहा जो मैं हैं सो हरिके नामका विन हौं । वे हरि कैसेहैं कि, जिनके सुर नर मुनि ध्यान धेरै हैं । कौनी नरहे। विनौहीं सों उपाय कहौ । कोरिनके यहां ताना तनिवेक अउठाने नापिइ औ इहाँ | अउठाजे शरीर ताको साढ़े तीनिहाथका नापिलिय अथवा अंगुष्ठमात्र लिंगशुरिरहें से मनोमय है ताकेा मैं हरिनाम विनिवेको धारणकिया है । नहीं तै; मैं मनके परे रह्यो हो । औ कोरिनके इहां चखते सूत बैंचिकै कैंड़ा कार लेइहैं, औ इह ३. वेद ३ हैं ई चर्ख हैं तिनके तात्पर्यते आत्माको स्वरूप ‘‘कि ते परमपुरुषपर श्रीरामचन्द्रको है" यहीसुत जीवात्माको निकास्यो । ॐ कारनके इहां सर में बूटीत तानाको पूरैहैं अम् इहां श्री इहां बैष्णवह रूपके मंत्र पॉवैहै रवुनाथजीको षट्क्षर और नारायणको ब्यक्षर औ अष्टाक्षर सो सर छूटीराम औ नारायण ये नामहैं । एकनामको सरबनायो एक नामका खटी बनायो इनहीको नामलिये हरिनामरूपी कपरा विनिबे को मैं अधिकारी भयो । यह मैं मान्यो कि, मैं पूरैदेहौं रामनाम दुइ खूटी हैं नारायण नामसर हैं ॥ १ ॥ भव सागर यक कठवत कीन्हो तामें माड़ी सानी । माडीको तन माड़ि रहाहै माड़ो विरला जाना । त्रिभुवन नाथ जो मंजन लागे श्याम मुरारिया दीना ।। चाँद सृर्थ्य दुइ गोड़ाकीन्हो माँझदीप किय ताना ॥ २ ॥ कोरिनके इहां माड़ी सानी जाइहै तब एक कठौतामें धेरै हैं सो इहां भवसागर कठौताह औ चारों शरीर माड़ी हैं तामें जीव सूतसनो हैं इहां साधन अवस्थामें चारों शरीर में वह नामको भावनाकरिकै जो जपिवो है मुमुक्षुदशामें सोई सानिबो है सो नाम उच्चारणकी विधि कोई बिरला जानै है सो रामानुजाचार्य आपने राममंत्रर्थमें लिख्यो है यह नाम स्मरणका शरीर धारण कियो सो