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शब्द । (३२५) । सो विचार करौ औ सम्पूर्ण जे विकार तिनको परिहरी कहे छोड़ो । तरण तारण एक पुरुष पर श्रीरामचन्द्रही हैं । श्री कबीरजी कहै हैं कि, तिनहांको भजन करु, उनते और दूसरो तेरो छोड़ावन वारो नहीं है । इहां तरण तारण दुइ कह्यो, सो तरण जो है मुक्ति हुँचेकी इच्छा तात तारणवारों कोई नहीं है वोई हैं । वही मुक्ति की इच्छा करिकै केई ब्रह्मज्ञान कोई आत्मज्ञान कोई दहरो पासनादक नाना उपासना करिकै तरनको चाहे हैं। परन्तु कोई तैरे नहीं हैं, जब तरनकी चाह छुटिजाइहै तव मुक्ति होइहै । सो यह तरनकी इच्छाते एक परम पुरुष श्रीरामचन्द्रही तारिदेइ । अर्थात् उनहॉकी दीन मुक्ति दैजाइहै औरकी दीन मुक्ति नहीं देनाइहै । जवभर तरनकी इच्छा होइह तवभर मुक्ति नहीं हाइहै तामें प्रमाण॥‘भुक्तिमुक्तिस्पृहायावत्पशाचाहदिवर्तते। तावद्भक्तिसुखस्पर्शःकथमभ्युदयो भवेत॥इति भक्तिरसामृतसिन्धौ ॥ इति साठवां शब्द समाप्त । अथ इकसठवां शब्द ॥६१ ॥ मरिहौ रे तन कालै करिहौं । प्राण छुटे बाहर लै धरिहौ॥१॥ काय विगुरचन अनवनि बाटीकोइ जारै कोइ गाडै माटी२ हिंदू लै जारै तुरुक ले गाड़े। ई परपंच दुनौ घर छाडै॥ ३॥ कर्म फांस यम जाल पसारााज्यों धीमर मछरी गहि मारा॥ राम विना नर छैहौ कैसा । वाट मांझ गोवरौरा जैसा॥५॥ कह कबीर पाछे पछितैहौ । या घरसों जव वा घर जैहौ॥६॥ मरिहौरे तन कालै करिहौ । प्राण छुटे वाहर लै धरिहौ॥१॥ काय विगुरचन अनवनि बाटीकोइ जारै कोइ गाडै माटी२ हे जीवा ! तुम मरिहौ तौ फिर तन लेहौ तौनेको लैकै का करिहौ । का या तनते कियोहै का वा तनते करिहौ । जबप्राण छूटैगो तव वाहू शरीरको