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(३१०) बीजक कबीरदास । कि,जब विवाहद्वैजाइहैं तब स्त्री अर्दोगी द्वैजाइहै औ सुवासिनि वे कहावै हैं जे या • कुलकी कन्या अनत बिवाही रहै हैं सो जब संसारमें जीव ब्रह्म फांसमें फँसिगयो तब सुवासिनि जे हैं साहबके जनैया तिनको ब्रह्मस विवाह नहीं भयो ते अरष के कहे उपदेश करिकै वाको लैचले सो यद्यपि याको चौका बनोहीहै मड़ये के तर बैठीही है अर्थात् यद्यपि संसारमें शरीर धारण किये है परंतु तहैं राँड़ गई ब्रह्मको पतिमानि राख्यौहै । सो बिचारा मरिगयो अर्थात् वाको धोखासमुझि लिया इहां रांड़ लैबो कहिआये औ सांच साईको संग बनैहै यह जो कह्या सो साहब सर्वत्र बैनहै वह अहं ब्रह्मको बिचार मिटिगयो ॥ ३ ॥ भयो विवाह चलीविनु दुलह वाट जात समधी समुझाई ३ कह कबीर हम गौने जैबे तरव कंतलै तूर बजाई ॥ ४ ॥ । सोइ सत रहते विवाह भयो कहे इस तरहते संसारी भयो । औं पुनि बिन दुलह चलतभई कहे अहंब्रह्म बुद्धि न रंहिगई मुक्ति हुँकै चित्शक्ति जीव साहबके पास जाइबेकी गैल लियो सो वह बाट नातमें समधी जो है शुद्ध समष्टि जीव सो याको समुझावत भयो कि, जैसे हम शुद्ध हैं तैसे तुमहू शुद्ध हौ । अर्थात् जब जीव साहबके लोक प्रकाशको बेधिकै साहबके लोकको चल्यो तब यह समुझत भयो किं, जैसे ये शुद्ध रहे हैं तैसे हमहूं शुद्ध रहेहैं, यह बीचहीमें धोखा भयो है।उनको देखिकै यह ज्ञान भयो यही उनको समुझाइबो है । सो कबीर नो है कायाको बीर जीव सो कतैहै कि, मन बचनके परे जो साहब के ऊपर दूसरो साहब नहीं है जो हमारो बिवाह द्वैबेको नहीं है। वह हमारो सदा कौ कंत है। तहां हम गवननाइहै अर्थात् तहांको हम गवन करेंगे । अरु वाही कंतको लैंकै कहे पाइकै तरिजाब । और केतको बैंकै न तैरेंगे । औ तहैं परम मुक्ति रूपी तूर वजावेंगे । अर्थात् और ईश्वरनमें लागे औ आपनेको ब्रह्म माने मुक्तिरूपी तूर न बाजैगो अर्थात् संसार औ सब उपासना औ ब्रह्म हैनाइबों ये सब तूरिकै साहबके पास जाईंकै अर्थात् डंकादैकै जाइगो ॥ ४ ॥ इति चौवनवां शब्द समाप्त ।।