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. (३०८) बीजक कबीरदास । वृक्षमें बेलि लपटै है सो यह संसाररूपी वृक्षमें आशारूपी बेलि लपटि गई है तामें बँधिकै प्राणी छूटे नहीं है ॥ ४॥ साहब कहै हैं कि, हे कबीर ! जय तेको संसार जातमें हम पुकारा नाम । विचार करिलेइ अर्थात् असार जो रामनाममें जगत् मुख अर्थ ताको छोड़ि राममें सार जो मैं ताको जानिकै रामनाम जपिकै मेरे पास आवै ॥ ५ ॥ | इति तिरपनवां शब्द समाप्त । अथ चौवनवां शब्द ॥५४॥ सोईके सँग सासुर आई। संग न सूती स्वाद नमानी गयो यौवन सपनेकी नाई॥१॥ जना चारि मिलि लगनशोचाई जना पांचमिलि मंडपछाई। सखी सहेली मंगल गावै दुख सुख माथे हरदि चढ़ाई॥२॥ नाना रूप परी मन भाँवार गांठि जोरि भई पति आई । अरघे दैदै चली सुवासिनि चौकहि रांड़ भई सँग साई ॥३॥ भयो बिवाह चली बिन दुलह वाट जान्न समधी समुझाई। कह कबीर हम गौने जैवै तरव कंतलै तूर बजाई ॥ ४ ॥ | यह जीव परमपुरुष श्रीरामचन्द्रकी शक्ति है सो जौनी भांतिते याको आपने स्वरूपको ज्ञान रह्यो है औ फिरि भयो है सो लिखे हैं । सांईके सँग सासुर आई। सङ्ग न सूती स्वाद न मानी गयो यौबन सपने की नाई १ परमपुरुष श्रीरामचन्द्र लोकको प्रकाश जो ब्रह्म है ताको साई मानिकै ताही सङ्ग सासुर जो यह संसार है तहां आई । सासुर संसार काहेते ठहरयों कि, अहंब्रह्मबुद्धि संसारहीमें होइहै । जब संसारकेबहिरे रहै है तबतो याको सुधही नहीं रहैहै । जब महाप्रलय है जाइहै तब सत् जो है साहबके लोकको