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शब्द । ( ३०३ ) अथ इक्यावनवां शब्द ॥५१॥ बुझबुझपण्डितमनचितलायकवहिंभरलवकवहिंसुखाय १ खन उवैखन डुवैखनु अगाहोरतन नमिलै पावनहिं थाहर नदिया नाहिं सरस व नीर। मच्छन मरै केवट रहै तीर ३ कह कवीर यह मनका धोकावैठा रहे चला चह चोखा४ बुझबुझपंडितमनीचतलायकवहिंभरलवडेकवहिंसुखाय हे पंडित ! सारासारके विचार करनवाले ते तो बिवेकी कहावै हैं चित्त लगाइकै यह मनको वृझि, ती कबहूँ भरलकह कबहूँ तो तें आपनेको मानिलेइहै कि, मैंही ब्रह्महीं आनंदते भरिजायैहै औ कबहूँ वहज्ञान बहिनायहै तब सुखाइ जाइहै अर्थात् वह आनंद नहीं रहिजाईहै ॥ १ ॥ खन उवै खन डुवै खन अवगाहारतननमिलैपाव नहिंथाहर नदिया नाहि सरस वैहै नीर। मच्छ न मरै केवट रहै तीर३ तव क्षणमें संसारते मन ऊबिउँठै है कहे बैराग्य छैआवै है औ क्षणमें वही मनरूप नदी हिलै है बूड़िजाय है अर्थात् संसारके विषयमें बूड़िजाय है। ॐ क्षणमें अवगाहै कहे नानामतमें विचार करै है कि, संसार छुटिजाय सो मनरूपा नदीकी थाह नहीं पावै है तेहिते रत्न जो है स्वस्वरूप सो नहीं मिले है। विचारही करत रहिनायहै॥२॥सो मनरूपी नदियाहै नहीं जो हैं बिचारकरै तू तो मनके बाहर है परंतु सरस नीर सङ्कल्पबनै है। अब मच्छको मारनवाळो केवट ज्ञान तीर में बने है परंतु काम क्रोधादिक मच्छ तेरे मारे नहीं मेरै हैं ॥ ३ ॥ कह कबीर यह मनको धोखा। बैठा रहै चला चह चोखा ४ । सो कबीरजी कहैं कि, नाना मतमें परिछै संसार छूटिबेको नहीं उपाय करौ हौ औ चोखे कई नीके चला चाहौहौ परंतु हौ बैठे कहे साहबके मिलिबेका उपाय ये एकउ नहीं हैं काहेते कि, पश्चिमको ग्राम नगीचऊ होइ औ तहांजाइबो चाहै औ जसजस पूर्वको मेहनत करिकै मंजिलकरै तौ.तस तस दूरिही परतु जाईहै यह संसा मनको धोखा मिथ्याहै तो मनले भिन्न हुँकै साहबमें लगै तबहीं साहब मिलेंग४ इति इक्यावनवां शब्द समाप्त । -- -