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शब्द । || ३९७) ते सब सरकै माटी द्वै रहेहैं तेहिने माटी मासी है कई मांसमें मिलिरही है औ । माटी मासी कहे मधुकैटभके मांसकी आई ॥ २ ॥ मत्स्य कच्छ घरियार वियाने रुधिर नीर जल भरिया। नदिया नीर नरक वहि आवे पशु मानुष व सरिया ॥३॥ हाड झरी झार गद गली गलि दूध कहते आवै ।। सो तुम पांडे जेवन वैठे मैटिअहि छूति लगावै ॥ ४ ॥ अरु नदिया जलमें मत्स्य कच्छ बरियार वियाने कहे होयहैं औ रुधिर नीर मन इत्यादिक वही नदियाके जळमें मिलिजाइ है औ पशु मानुष सारिजायहैं; ते वह पानी पियोहौ औ आचार करोहो ॥ ३ ॥ दूध हाड़ते झरि झरि गूदते गलिगलिकै लोहू भयो वही लोहूते दूध भयो ताहीको लैकै हे पंडित! तुम जेंवन वैठहै। ॐ मैटी जो मसिहे ताको छूति लगावोही कि,मांसबड़ो अपवित्र है याको जे खाइहे ते वड़ो निषिद्धकर्म केरै हैं सो कहो तो वह दूध मांसते कैसे भिन्नहै ॥ ४ ॥ वेद किताव छडि दिहु पांडे ई सब मनके कर्मा । कहै कबीर सुनोहो पांडे ई सव तुम्हरे धर्मा ॥ ६॥ सो हे पांड़े! शुद्ध अशुद्ध तो वेद किताबते जानेजाइहैं ते वेद किताबको तुम छोडिदियो ये जे सब कहिआये जे तुम धर्म करौह ते तो सब तुम्हारे मनके कर्म हैं आपने मनहींते ये सब तुम बनाइ लियॉहै इनते तुम न निबहौगे।श्रीकबीरजी काकु करैहैं कि हेपांडे! बिचारिकै देखौ ये सब तुम्हारे धर्म हैं? अर्थात् नहीं है। तुमतौ साहबकेहौ । अथवा कबीरजी कहै हैं एते सब कर्म करौही अपने मनके बनाये औ वेद किताबौके कहेते ये सब तुम्हारे धर्मकहे तुम्हार शरीरमा हैं । तेहिते शरीरते भिन्न हैकै आपने स्वरूपको जानौगे तब आपने सांचे कर्मनको जानौगे यह व्यंग्यहै ॥ ५ ॥ इति सैंतालीसवां शब्द समाप्त ।। १ कहीं कहीं मट्टी मीसको में कहैं परन्तु यहाँ तो मिट्टीसे आशय है मनुष्य शरीरते क्योंकि, दम्भ करके आपजी चहे कर्म करतहै लोरे दूसरे पवित्र मनुष्यनते छूत मानतैहै ।