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( २९४) बीजक कबीरदास । | जिनको जिनको यापदमें वर्णन करिआये तेते सब महाप्रलयमें लीन होइहैं । एक कहे सम अधिकते रहित जो साहव नहीं मुवा । औ सिरजनहार जों समष्टि जीव सो नहीं मुवाहै अर्थात् सो रहिनायहै । और कौन नहीं मुवा तिनको कवर नी बतावै हैं । जीवते मेरै नहीं है शरीरहीमैहै सो जे जे देवतेनको मुवा कहिआये ते जौन रूपते साहब के समीप रहै हैं सो स्वरूप इनको नहीं मुवै है पार्षद शरीरते बनै रहै ह यहां अपने अंशनते जगत् कार्यकरै है सो पूर्व लिखिआये हैं ॥ ५ ॥ इति पैंतालीसवां शब्द समाप्त ।। अथ छियालीसवां शब्द ॥ ४६॥ पंडित अचरज यक बड़ होई।। यक मर मुये अन्न नाहिं खाई यक मर सीझ रसोई ॥१॥ करिके स्नान तिलक करि बैठे नौ गुण काँध जनेऊ ।। हांडी हाड़ हाड थारी मुख अव षट कर्म बनेऊ॥२॥ धरम कथै जहँ जीव वधै तहँ अकरम करे मेरे भाई। जो तोहरे को ब्राह्मण कहिये तो केहि कहिये कसाई ॥३॥ कहै कबीर सुना हो संतो भरम भूलि दुनिआई ।। अपरम पार पार पुरुषोत्तम यह गति विरलै पाई ॥४॥ अब जे षट्कर्मी पंडित लोग बलिदान करिकै मांस खाइ हैं तिनको कहै हैं॥ पंडित अचरज यक बड़ होई। यक मर मुये अन्न नहिं खाई यक मर सीझ रसोई ॥ १॥ कारकै स्नान तिलक कर बैठे नौ गुण कांधू जनेऊ ।। हांड़ी हाड़ हाड़ थारी मुख अब षट कर्म बने ।।२॥ हे पंडित ! एक बड़ो आश्चर्य होइ है । एक मरै है ताके मेरेते कोई अन्न नहीं खायहै अरु काके छुयेते अशुद्ध है जाइहै, अरु एक जीवको मारि