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शब्द । | (२९१) गोरख राम एकौ नहिं उहँवां ना ह्वाँ भेद विचारा। हरि हर ब्रह्म नहीं शिव शक्ती तिरथ नहीं अचारा ॥ ४ ॥ माय वाप गुरु जाके नाहीं सो दूजा कि अकेला। कह कबीर जो अबकी समुझे सोई गुरू हम चेला ॥५॥ | हे पंडित ! नुमतौ वहि ब्रह्मको मिथ्यै बिचार करोहो। जो यहिपदमें वर्णन करिआये सो वहमें एकड नहीं है वह तो धोखाही है सो कबीरजी कहै हैं कि, जो सो वह आत्माते दूसर है कि अकेल वह ब्रह्महै? जो अबकी समुझे कहे यह ज्ञान भये पर समुझै कि, मैं परमपुरुष श्रीरामचन्द्रको हाँ वह ब्रह्म धोखा है। सोई गुहै । म चेलाहौं काहेते कि, मोहिं तो धोखई नहीं भयो है जो आएनेको ब्रह्मानिकै औ साहवको समुझे है । वाको धोखा मानिलेइ सो मेरो गुरूहै औमैं वाको चेलाहों अर्थात् सोई मोसों अधिक है काहेते कि, वह धोखा में परिकै निकस्यो है यह प्रशंसा कियो ॥ ५ ॥ इति तेतालीसवां शब्द समाप्त । अथ चालीसवां शब्द् ॥ ४४ ॥ बूझहु पंडित करहु विचारी पुरुष अहै की नारी ॥ १ ॥ ब्राह्मणके घर ब्रह्मणी होती योगीके घर चेली। कलिमा पढ़ि पढ़ि भई तुरुकिनी कलिमें रहै अकेली ॥२॥ बर नहिं बरै व्याह नहिं करई पुत्रजन्म होनिहारी। कारे मॅड़े यक नहिं छ; अवहूं आदिकुवांरी ॥ ३॥ मायिक न रहै जाइ न ससुरे साई संग न सोवै ।। | कह कबीर के युगयुग जीवें जाति पांति कुल खोवें ।।४।। यह मायाही सब जगतके जवनको भरमायो है सोई कहै हैं ॥