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( २९० ) बीजक कबीरदास । कर्म स्वभाव उनको अचित शरीरहै तेहिते विना गोपाल कहूं ठौर नहीं है। जीव । नरक स्वर्ग जायेहै सो अब बतावै ॥ २ ॥ अन जानेको नरक स्वर्ग है हरिजानेको नाहीं।। जेहि डरको संवे लोग डरत हैं सो डर हमरे नाहीं॥३॥ श्रीकबीरजी कैहै हैं कि अनजानेको नरक स्वर्ग है कहे जो कोई हारको नहीं जानै ताको स्वर्गहै औं नरक है । औ जो कोई हरिको सर्वत्र जानैहै ताको न नरकहै न स्वर्ग है । नौन डरको सब लोग डराय हैं माया ब्रह्म नरक स्वर्गादिकनको तौन डर उनको नहीं है काहेते वे तो सर्वत्र साहबैको देखैहैं ॥ ३ ॥ पाप पुण्यी शंका नाहीं स्वर्ग नरक नहिं जाहीं।। कहै कबीर सुनो हो संतो जहँ पद तहां समाहीं ॥४॥ औ न उनको पापपुण्य की शंका है काहेते कि, जो कोई बद्ध होइ सो मुक्त होइ, तेहिते न वे बद्धही हैं न मुक्तही हैं तामें प्रमाण श्रीभागवते ।।‘बद्धमुक्तइतिव्याख्या गुणतोमेनवस्तुतः । गुणस्यमायामूलत्वान्नमेमोक्षोनबंधनम् ॥ हम तो सर्वत्र साहबहीको देखैहैं वे नरक स्वर्गको नहीं जाईंहैं सो कबीर जी कहेहैं कि हे संतो! सुने ऐसी भावना जे नर करै हैं ते नर जहां पद तहां समाह कहे परमपुरुष श्रीरामचन्द्रके अंश हैं सो तिनहीं के स्थानमें जाइ हैं ॥ ४ ॥ इति बयालीसवां शब्द समाप्त । अथ तेतालीसवाँ शब्द ॥४३॥ पंडित मिथ्या करौ विचारा। ना ह्वां सृष्टि न सिरजनहारा थूल स्थूल पवन नहिं पावक रवि शशि धरणि न नीरा । ज्योति स्वरूपी काल न उहँवां बचन न आहि शरीरा॥२॥ कर्म धर्म कछुवो नहिं उहँवा ना कछु मंत्र न पूजा । संयम सहित भाव नहिं एक सोतो एक न दूजा ॥ ३ ॥