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(२८८) बीजक कबीरदास । और जहां जहांकी बासना कश्कैि मैरै है तैौनी तौनी योनिमें प्राप्त होइ है एकै जीव बासनन करिकै सर्वत्र होइहैं यह छूति कहांते उपजै है ॥ २ ॥ लख चौरासी वहुत बासना सो सव सरिभो माटी । एकै पाट सकल बैठारे साँचिलेत धौ काटी ॥ ३॥ | यह जीव बहुत बासननमें परिकै चौरासी लाख योनिनमें भटकैहै शरीर स| रिकै माटी है जायहै एकै पाटमें कहै जगदमें नानां वासना करिकै माया सबके बैठावतभई कह शरीरधारी सो करतभई अरु ये शरीर सबमाटिही आईं औ माटीमें मिल जाइँगे औ जीव सबके एकही हैं औ एकही पाटमें बैठे हैं सो वे जलको साँचिकै छूति काटि लेत हैं का जल सींचे छूति मिटि जातहै ? नहीं मिटै ॥ ३ ॥ | छ्रतिहि जेंवन छूतिहिअचवन छूतिहि जग उपजाया ।। कह कबीर ते छूति विवर्जित जाके संग न माया ॥ ४ ॥ सो वही छूति जो है बासना सो जब उठी तब जेंवन किया है वहीं वासना उठी तब अँचया । और कहालौं हैं वही वासना ते जगत् उपन्यो है। सो श्रीकबीरजी कहै हैं कि, जाके संग माया नहीं है सोई वासनारूपी छूतिके विवर्जितहै । सो हे पंडित ! माया को जो तुम छोड्यो नहीं छूति तिहारे भीतर घुसी है ऊपर के छूति माने कहा होइ बड़ी छूतिकियो है बासनैते | चित्तकी वृत्ति उठै है तब यह मानै है कि, हम ब्राह्मण क्षत्री हैं वैश्य हैं शूदहैं ॥ ४ ॥ इति इकतालीसवां शब्द समाप्त । हैं 9