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शब्द। (२८७) जे परमपुरुष पर ने श्रीरामचन्द्र तिनते विमुख हैं ते सब लोकनमाँ निन्दित हैं तामें प्रमाण-* यश्चरामनपश्यतुयंचरामोनपश्यति । निंदितस्सर्वलोकेषु स्वात्माप्येनेविगर्हते ॥ ५ ॥ इति चालीसवां शब्द समाप्त । अथ इकतालीसवां शव्द ॥४१॥ पण्डित देखौ मनमो जानी । कलुवों छूति कहते उपजी तवाहिं छूति तुम मानी ॥ १॥ नादे विन्दु रुधिर यक संगै घटहीमें घट सज्जै । अष्ट कमलकी पुडुमी आई यह छूति कहां उपज्जै ॥२॥ लखचौरासी बहुत वासना सो सव सरिभो माटी। एकै पाट सकल वैठारे सींचि लेत धै। काटी ॥ ३॥ छूतिहि जेंवन छूतिहि अचवन झूतिहि जग उपजाया । कह कवीर ते छूति विवर्जित जाके संग न माया ॥ ४॥ | पंडित देखौ मनमो जानी। कहुधौं छूति कहाँते उपजी तवहिं छूति तुम मानी ।। १ ।। हे पण्डित! तुम मनमें जानिकै कहे बिचारिकै देखौतौ औ कहौ तौ यह छूति कहांते उपजी है जो छूति तुम अपने मन में मान्यो है ॥ १ ॥ नादे विंदु रुधिर यक संगै घटहीमें घट सज्जै । अष्ट कमल की पुहुमी आई यह छाति कहां उपज्जै ॥ २॥ | नादते पवन विंदुते बीय रुधिरके संगते घटहीमें वट सजैहै, बुद्बुदा होइहै सो अष्टदलका कमलहै तामें अटकिकै लरिका होइ है । सो पुष्टपर है सो लरिकौके वाही भांतिको अष्टदल कमलहोइहै तौने अष्टदल कमल कमलके दलदलमें वाको मन फिरत रहै है ताते तैसे नाना कर्म में लगिकै नाना स्वभाव वाके होइ हैं ।