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(३०) कबीरजीकी कथा । बैठौं तख्त माँह जब शाहा । वीरभानु कहँ बहुत सराहा ॥ पुनि विरासंहहि कह दिल्लीशा । अब हम तुमको देत अशीशा ॥ दोहा-बाहिं राजा कर स्ववश, करहु राज्य चहुँ ओर। बांधवगढ़ निज वसनको, लीजै नृपाशिरमोर ॥ ३० ॥ असकहि लिखित दियो दिल्लीशा । चल्यो तबै विरसिंह महीशा ॥ दिल्लीपति प्रयाग है आयो । करि मेहमानी भवन पठायो ।। लै दल पुनि विरसिंह भुवार । दक्षिण चल्यो सहित परिवारा ॥ आयो तमस नदीके तारा । तब लाडिल परिहार सुवीरा ॥ नरो शैल माँ दुर्ग वनाई । वसत रहै सो बली महाई ॥ सो मारग महँ कियों लड़ाई । तासु नरो गढ़ लियो छैड़ाई ॥ नरो जीति विरसिंह भुवाला । बाँधा नगर रह्यो तेहि काला ॥ तहाँ कछुक दिन कियो निवासा । पुनि गवनतमो दक्षिण आसा ।। रहे रवपुर करचुलि राजा । तुव पितुकेर कियो तहँ कांजा ॥ सोदायज माँ बाँधव दीन्ह्यो । तहँ विरसिंह वास चलि कीन्ह्यो ।। वीरभानुको दै पुनि राजू । आय प्रयाग बस्यो कृतकाजू ॥ कह्यो तोरि वंशावलि ऐसी । जानी रही मोरि यह जैसी ॥ दोहा-सुनि अपनी वंशावली, बहुरि कह्यो शिरनाइ ॥ अब भविष्य यहि वंशकी, दीजै कथा सुनाइ ॥ ३१ ॥ बांधव दुर्ग वसीकी नाहीं । राज्य चळी यहि भाँति सदाहीं ॥ आगे कैसो द्वैहै बंशा । यह सिगरो अब करहु प्रशंशा ॥ तब कबीर बोले मुसुकाई । राजाराम सुनहु चित लाई ॥ तुम्हरे दशये वंशहि माहीं । लेहो तुमही जन्म तहँाहीं ॥ सुत समेत बांधवगढ ऐहौ । बीजक ग्रंथ मोर तहँ पैहौ ।। ताकेा अर्थ समर्थन करिही । संत समाजनको सुखभरिहौ ।। बारभद्र तुम्हरेर सुत होई । करिही राज्य सदा सुख मोई ॥ संवत अष्टादश नवषटमें । ऐही बांधव गढ़ अटपटमें ॥ तबते ताहि विशेष बसैहौ । अपना विमल महलरचवैहौ ॥