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शब्द । (२७५ ) नमें लगाय देने भये । वेद किताबको तात्पर्य न जानतभये । सो कबीरजी कहें कि, जौने जीवकों में फंदत छोड़ावनहार मिल्योहाँ औ परमपुरुषमें लगाई दियो ते आजल नहीं विठुरे न विठुरंग।सा तुमहूं पारिखकरिके मेरोकहो मानिकै हे हंसजीव! तुमहूं फंद छाडि परमपुरुष परजेश्रीरामचन्द्र हैं तिनमें लगौ ॥५॥ इति वत्तीसवां शब्द समाप्त । अथ तेतीसवांशब्द ॥ ३३ ॥ हंसा प्यारे सरवर तेजे जाय ।। जेहि सरवर विच मोतिया चुनते वहु विधि केलि कराय। सूखे ताल पुरइन जल छोड़े कमल गयो कुभिलाई। कह कवीर जो अबकी विछुरै वार मिले कव आइ॥२॥ | हे प्यारे हंस ! सरवर जो शरीर है ता तेजे जाय कहे जिनके शरीर छूटिजाय । जौने सरवर शरीरको प्राप्तहोइकै मोतिया चुने हैं कहे ज्ञान योगादिक साधन करिकै मुक्तिकी चाहकरै हैं औ बहु बिधिकी केलि करै है। जो त्याने पाठहोय तौ या अर्थ है । हे हंसाजीव ! प्यारो जो सरवर शरीर ताको त्यागे जायहै नौन सरवर शरीरमें नाना देवतनकी उपासनारूप मोती चुने नाना विषयनको भोग कीन्हे सो छोड़ेजार्यहै ॥ १ ॥ सोशरीररूपी ताल जब सूख्यो कहे रोग करिके ग्रस्तभयो सब पुरइनि जल छोड़ि दियो अर्थात् वह ज्ञान बुद्धि तुम्हारे न रहिगयो । अरु अनुभव तो तुभकरतही सोई कमलहै सोकुं. भिलाइगयो अर्थात् भूलगयो सो कबीरजी कहै हैं कि, यहि तरहते जो अबकी विठुरै कहे शरीर छूटिनाय तब पुनि कबै ऐसा शरीर पावैगो । चौरासीलाख योनि भटकेगो तब फेरि कबहूँ जैसे तैसे मिलैगो शरीर छूटे ज्ञान योगादिक साधन भूलिजाय हैं । तेहिते मानुष शरीर पायकै साहबको जनै । वह शरीरहू छूटे नहीं भूल है काहेते कि साहबही अपनो ज्ञान देइहै औ हेसस्वरूप देइहै ॥ २ ॥ इति तेंतीसवां शब्दसमाप्त ।