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शब्द ।। | ( २६९) भाई रे गैया एक विरंचि दियोहै भार अभर भो भाई। नौ नारीको पानि पियति है तृषा तऊ न बुताई ॥ १॥ हे भाई जीवो! एक वाणीरूप गैया तुमहीं सबको बिरंचि जे ब्रह्माहैं ते दियो है । सो गैयाको जो तात्पर्य दूधहै ताको तुम न पायो गैयाको भारा अभर द्वैगयो तुम्हरो सँभारो न सँभारिगयो । अर्थात् जोनो बाणीमें विधि निषेध लिखे हैं सो तुम्हारो कियो एक नहीं है सकैहै । सो ये मायिक विधि निषेध तो तुम्हारे किये है नहांसकैहै । बाणी जो तात्पर्य बृत्तिते बतावैहै सो तो अमायिकहै कैसे जानौगे? वह गैया कैसी है सो बतौवै नौ कहे नवा जे व्याकरण हैं तिनकी जो नारी कहे राहहै तिनकर जो शब्दरूपी जल है ताको पियै है अर्थात् वोहीके पेटते वेदशास्त्र सव निकसै हैं औ वहीके पेटमें हैं ते शास्त्र वेद वोही नवो व्याकरणके शब्दरूपी जलते शोधे जायहैं । अर्थात् वही बाणीमें जल समाईहै परन्तु तृषा तबहूं नहीं बुझाईहै कहे वोही नवो व्याकरण कारकै शोधैहै शास्त्रार्थ करतही जायदै बोध नहीं होइहै कि, शुद्धद्वैगयो पुनि प्रणीतन में आर्ष कहिदेय है ॥ १ ॥ : कोठा बहत्तरि औ लौलाये वज्र केवाँर लगाई । खूटा गाड़ि डोरी दृढ़ बांध तेहिवो तोरि पराई॥२॥ पातंजल शास्त्रवाले वही गायत्री गैयाको बांधन चह्यो बहत्तरिउ कोठाते लौलगाइकै कहे श्वास लैंचिकै खेचरी मुद्राकार घेटीके ऊपर बत्र कपाट जो लग्या है ताको जीभते टारया तब वहां अमृत अवो तब नागिनी उठी श्वासाके साथ ऊपरको चढ़ी ताके साथ आत्मौ खूटा जो ब्रह्मांड है ब्रह्मज्योति तहां पहुंच्योजाई सो ज्योतिरूप ब्रह्मखूटाँहै तामें प्रणागिनी जो गैयाहै ताको बांध्यो तेहिवो तोर पराई कहे जव समाधि उतरी तबफिरि जसकोतस संसारी द्वै गयों नागिनीशक्ति उतारआइ पुनि जीवनको संसारमें डारिदियो ।। २ ।। चारि वृक्ष छौ शाखा वाके पत्र अठारह भाई। एतिक लै गैया गमकीन्हो गैया तउन अघाई ॥३॥