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शब्द । | (२६३ ) कैसो साहब सर्वत्र पूर्णहै सो बतावैहैं । लछिबिनु सुखकहे जो पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं होइ है तामें सुखनहीं होइहै देखो तो नहीं पैरै है साहब पै जें कोई स्मरण करै है सर्वत्र ताको सुखहोयहै । साहबको कौनौ बातको दरिद्र नहीं है जो चाहै सो करिडारै समर्थहै परन्तु नानाजीवनको अज्ञानमेंपरेदेखिकै साहिबोको यही दुःख है कि, मेरे अंश जीव माया में परिके नरक स्वर्ग जाय हैं । काहेते यहदुःखहै कि, साहव अतिदयालुहैं तामेंप्रमाण ॥ 4 तावत्तिष्ठतिदुःखीवयावहःखं न नाशयेत् । सुखीकृत्यपरान्भक्तानुस्वयम्पश्चात्सुखीभवेत इति ॥ ध्वनि यह है कि,साहब दयालु हैं ते सर्वत्र पूर्णहैं यह बिचारिकै किं जीव मोको जहैं स्मरणकैरै मैं तहैं उवारिलेउँ । फिरिकैसो साहब है कि, मोहनिद्रा नहीं है सदानगै है अपने भक्तनकी रक्षाकरिबेको । ऐसेहू साहबके सम्मुख जो जीव नहीं होइहैं तिनकी और सदा सुखमय साहब सोवे है अर्थात् कबहूँनहीं देखैहै । फिर कैसो साहब है जाकी ज्योति जो ब्रह्म है अर्थात् जाको लोकप्रकाश जो है ब्रह्म सो बिना कौनौ कथै है वो कौनौ लीलैकियो अकर्थहैं ऐसे साहबके बिना रूपमें आशिकभये साहबको ज्ञानरत्न विहीना जीवसंगर में जनन मरण पाइपाइ रोवैहै ॥ २ ॥ भ्रम बिनु ज्ञान मनै विनु निरन्खै रूप बिना बहुरूपा। थिति बिनु सुरति रहस बिनु आनँद ऐसो चरित अनूपा॥३॥ कहै कबीर जगत विन माणिक देखौ चित अनुमानी । परि हरि लामैं लोभ कुटुंब सब भजहु नशासँग पानी॥४॥ फिर कैसोहै साहब भ्रमबिनाहै अर्थात् कबहू मायासबलित ढुकै जगत्महीं उत्पत्तिकियो । सदा ज्ञान गुण सदा ज्ञान स्वरूप है । तौन साहबका मानै बिना निरखै कहे बिना हूँकै हंस स्वरूप पाईंकै तें देखे । कैसे हैं साहब कि, चित् अचव जेरूप तेहि बिनाहैं अर्थात् ये स्पर्श नहीं करिसकै हैं औचित् अचित्के शरीरी है बहुत रूपौ हैं सब उन्हींके रूपैहैं । फिरि कैसेहैं जब साहब सुरति दीन है तब जीवन की स्थिति भई है। औ सुरति नहीं है साहबकी स्थिति वा लोक में बनी है । औ आनंदजो मनबचनमें आवै है सो नहीं है वहां आनंद बनो