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शब्द । (२६१ ) कारिकै जगत्को उठवैहै कि, जगत् उठिजाय मारिहि जाइ । सो यह जगत् वो मन रूपही है सो उनके मन में मनरूप जगत् न समान्य अर्थात् उनको मिथ्या कियो ने करिगयो । अथवा धोखाब्रह्म ताको मन कहे विचार उनके मनमें समाई रह्योहै ताही करिकै जगत् को उठावै है कि, जगत् न रहिजाई सोऊ न उठ्यो ॥ ३ ॥ कहैकवीर योगी ॐ जङ्गम फीकी उनकी आसा । रामै नाम रटै ज्यों चातक निश्चय भक्ति निवासा ॥४॥ सो कबीरजी कहै कि योगी जंगमन की सबकी आशा फीकी है काहेते धोखाव्रह्मके ज्ञानते संसार मिथ्यानहीं होइहै । जीवनके ब्रह्महोबेकी आशा फीकी है सो जो रामनाम निशिवासर लेबहै औ जैसे चातक एक स्वातीही की आशा करै है तैसे परमपुरुष पर श्रीरामचन्द्रकी आशा कैरैह ताहीके हृदयमें उनकी भक्तिको निश्चय कै निवासहोइहै भक्तिरसरूपहै याते इनकी आशासरिसैहै अर्थात् सफलैहै औ साई संसार सागर ते उबरै है सो आगे रमैनीमें कहिये हैं । “कहै कबीरते ऊबरे जोनिशिबासर नामहिलेव ॥ ४ ॥ . इति छब्बीसवां शब्द समाप्त । अथ सत्ताईसवाँ शब्द ॥ २७॥ भाई अद्भुत रूप अनूप कथा है कहौ तो को पतिआई। जहँजहँ देखों तहँतहँ सोई सब घट रह्यो समाई ॥ १॥ लछि विनु सुख दरिद्र विनु दुख है नींद विना सुख सोवै। जस विनु ज्योति रूप विनु आशिक रतन बिहूना रोवै॥२॥ भ्रम विनु ज्ञान मनै विनु निरखे रूप विना वहु रूपा । थितिविनु सरति रहस विनु आनँद ऐसो चरित अनूपा॥३॥ कहै कबीर जगत बिनु माणिक देखो चित अनुमानी । परिहार लामै लोभ कुटुंब सव भजहु न शारंगपानी॥४॥