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शब्द । | (२९९) लिया अर्थात् कुछ सुधि न रहगई । सो कबीरजी कहै हैं कि भली कुशलात बनी है कि तब तो कुछसुधिहू रही अव कछु सुधिनहीं रहिगई ॥ ३ ॥ पाणि ग्रहण भये भव मंड्यो सुषुमनि सुरति समाता । कहै कबीर सुनो हो संतो बूझो पंडित ज्ञाता ॥४॥ वहां मंडप परे पर पाणिग्रहणहोय है यहां पाणिग्रहणभयेपर भव मेड्या अर्थात् जब पाणि ग्रहण मायाको द्वै चुक्यो कहे नागिनी को जब सुधा पिआइ चुक्यो तव | मुहूँ नागनीको पानी दियो तैसेहि फल मिल्यो । एक मुंह दियो तौ महीना भरेकी समाधि लगी औ दुइमुंहदियो तौ तीन महीनाकी समाधि लगी औ चारि मुंहदियो तौ छः महीनाकी समाधि लगी, औ पांचमुंहदियो तौ बर्षदिनकी, औछःमुंहदियो तौ तीन वर्षकी, औ सातमुंहदियो तौ बारहवर्धकी, समाधिलगी । और जो हनारनवर्ष समाधि लगावाचाहै तौ और मुंहदेय । सो जब नागिनीको सुधा पिआयो तब ने मुँह दियो तेतनेनदिन भर सुषुमनि सुरति समाता । अर्थात् सुषुम्णामें जीवकी सुरति समाईहै । पुनि जब समाधि उतरी तब फिर भव मंड्या कहे संसारी भयो अर्थात् पुनि ब्रह्मांड मंड्यो कि, शरीरकी सुधि भई । सो कबीरजी कहै हैं कि, हे संतो ! हे ज्ञाता पंडितौ ! तुम सुनौ तौ बुझौ तौ वे कहां मुक्तभये ? नहीं भये फेरि तौ संसारही में उलटि आवै हैं ॥ ४ ॥ इति पचीसवां शब्द समाप्त । अथ छब्बीसवांशब्द ॥ २६॥ कोई विरला दोस्त हमारा भाई रे बहुतका कहिये । गाठन भजन सवारे सोइ ज्यों राम रखै त्यों रहिये ॥१॥ | आसन पवन योग श्रुति संयम ज्योतिष पढूि बैलाना । छौ दर्शन पाखंड छानबे येकल काहु न जाना ॥२॥