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(२५८) बीजक कबीरदास । है सो जब पांचहजार कुंभक कियों तब नागिनी जागा सो ऊपर को चढ़ी तब चक्र के द्वार खुलिगयो तब आत्मातो दूलहहै सो चर्दिकै मौर जो नागिनींहै। ताके माथेपर गैब गुकामें बैठ्यो जाइ । औ बरातनमें जो नहीं कहिबेलायक झूठीबात सो गारीमें कहेहैं इहां शरीरमें ब्रह्म द्वैलैबो अकर्थहै कहिबे लायक नहीं है । सो कहै हैं कि, हम ब्रह्मद्वेगये । औ मड़ेय के चारनको नेग समधी देइहै; इहां मड़येके चारनके तेगनमें समधीही दीन्हहै । मायाको पिता जे मनहै सो एक समधीहै औ मनके समधी साहब काहेते कि, यहजीव भगवद्वात्सल्यको । पात्र है जबयह आत्मा विषयनमें रह्यो है तब बेजाने कबहूँ कहतहू सुनतरह्यो । जवते ब्रह्माड मड़वामें गयो तबते कबीरजी यहकूट करै हैं कि,मड़येके चारन में ! समधीको दैराख्यो है कहे समधी जो साहब ताको कहिबो सुनिबो मिटिगयो । सो जानैतो यह है कि, हम मायाते छूटिगये पै नागिनीको जै बुन्दसुधा देइहै ? वर्ष वहां समाधि लागै है सो नागिनी ही वहां गीहरौख है सो पुत्र जो जीवहै । सो माता जो माया है ज्योतिरूप आदिशक्ति:ताको विवाहि लेयहै कहे वाहीकै ] संग ज्योतिमें लीनद्वै के वहां रहै है ॥ २ ॥ दुलहिनि लीपि चौक वैठाये निर्भय पद परभाता। भातहिं उलटि वरातहिं खायो भली वनी कुशलाता॥३॥ चौक लीपिकै दुलहिन को बैठावै हैं। यहां दुलहिन जो है माया जो जगत्रूप करिकै नानारूपहै ताको लीपिकै एक करिडारयो कहे एक ब्रह्मही मान भयो ताके ऊपर चौकबैठायो कहे चौक देत भयो । अर्थात् अंतःकरणावच्छिा । जो चैतन्य सो प्रमातृचैतन्य कहावै है । वृत्त्यवच्छिन्न जो चैतन्य हो । प्रमाणचैतन्य कहावै है । बिषयावच्छिन्न चैतन्य प्रमेय चैतन्य कहावै है। स्फूर्त्यवच्छिन्नचैतन्य स्फूर्त चैतन्य कहावै है । सो ये चारों चैतन्य चौकबैठायो कहे चौक पूरयो अर्थात् चारो चैतन्यको एक करिकै स्थितकियों बिवाह होत होत भिनसार होइ जायहै तब यह मन भयो कि, हम निर्भय पदको पहुंचिगये प्रभात द्वैगयो, मोहरात्री व्यतीत द्वैगई । नागिनीको जे अमृत सरोवर में अमृत पियावै है सोई भात है सो नागिनी जब अमृतपियो तवे वहै भात बरात जो आगेबर्णनकर आये पांचतत्त्व पचीसप्रकृति ताकोख