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शब्द। | (२५५) अथ चौबीसवां शब्द ॥ २४॥ अवधू सो योगी गुरु मेरा । जो ई पदको करै निवेरा ॥१॥ तरुवर एक मूल विन ठाढो विन फूले फल लागा। शाखा पत्र कछू नहिं वाके अष्ट गगन मुख जागा ॥२॥ पौ विनु पत्र करह विनु तुम्वा विनु जिह्वा गुण गावै । गावनहारके रूप न रेखा सतगुरु होइ लखावै ॥३॥ पक्षी खोज मीनको मारग कहे कबीर दोउ भारी । अपरम पार पार पुरुषोत्तम मूरतिकी बलिहारी ॥४॥ अवधू सो योगी गुरुमेरा। जो ई पदको कैरै निबेरा ॥१॥ तरुवर एक मूल विन ठाड़ो विन फूलै फल लागा ।। शाखा पत्र कछु नहिं वाके अष्ट गगन मुख जागा ॥२॥ बधू जाके न होइ सो अबधू कहाँवै सो हे अबधु जीवो!नो यह पदके अर्थको निबेरा कारके जानै सो योगी गुरुकहे श्रेष्ठहै औमेरा है कहे मैं वाको आपनो मानौहौं ॥ १ ॥ एकजो तरुवरहै सो विन मूल ठाढ़ी है अरु वामें बिनाफूल फल लागो हैं सो यहां तरुवर मनहै सो जड़ है अरु आत्मा चैतन्य है शुद्ध है जो कहिये आत्माते उत्पत्तिहै सो जो आत्माते उत्पन्न होतो तौ आत्मा चतन्य है याते यहू चैतन्य हो तो तात आत्माते नहीं उत्पन्नभयो । यह आपई आत्माते प्रकाशभयो जो बिचारैतौ वाकोमूल भगवत् अज्ञान सत नहीं है बिनामूल ठाये भयोहै अरु बिना फूलै फळ लागॉहै कहे जगत् उत्पादक क्रिया मननहीं किया मिथ्या संकल्पमात्रते जगनूप फळलागवई भयो अरु वाके शाखापत्र कछू नहीं है। अर्थात् अंगनहीं है चित्त बुद्धि अहंकार येऊमिथ्या निराकारहैं अरु यह मनैके मुखते आठौ गगन जागतभये । सात सप्तावरणके आकाश अथवा चैतन्याकाश ॥२॥