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शब्द । (२५१) हे अवधू जीवौ ! तुम्हारे तो बधू कहे स्त्री नहीं है अर्थात तुमतौ मायाते भिन्नहौ । जेतनो तुम देखोहो सुनोहौ ताको मायामें मिलिकै तुम्हारे मनही विस्तार कियो है सो यह मनको बिस्तार छोड़ि देउ अरु जिनते सद्गति कहे समीचीन गति है मन बचनके परे धोखा ब्रह्मके पार ऐसो जे लोक प्रकाश ताहूते न्यारे ऐसे साकेतनिवासी परमपरपुरुष श्रीरामचन्द्र तिनके पदगहौ । कबीरजी कहै हैं कि, हेजीवौ ! बिचार तो करौ ( जोजो बात यहि पदमें स्पष्ट वर्गन करिगये ते ) ये कोऊ तब नहीं रहे । अरु वासों भिन्न जो तुम कहो ही कि, पूर्णब्रह्म है कहे सर्वत्र ब्रह्मही है वासो भिन्नदूसरो नहीं है सो यह धोखा कहांते प्रकट भयो है । औ किरितम जोमाया है ताको किन उपचार कहे किन आरोपण क्यिो अर्थात् यह शुद्ध समष्टि जीवको मनहीं किरितम जो माया है। ताका आरोपण कियोहै औ मनहीं वह ब्रह्मको अनुमान किया है, ताहीको किया राम खोदाय आदिने मन बचनमें आवै हैं जे वर्णन कारे आये हैं तेई बिस्तार हैं। सो पूर्व मंगलमें औ प्रथम रमैनीमें बर्णन कर आयेहैं । औ यहां रामको औ हरिको जो कहै हैं से नारायण ने रामावतार लैइ हैं तिनको कहै हैं । नहीं यमन परसाही कई चौदही यमनके परेजे निरंजन हैं तिनहुँको साही नहीं रही । परम परपुरुष श्रीरामचन्द्रको नहीं कहै हैं काहेते कि, वेतौ मन बचनके परे हैं। सो पूर्वलिखि आये हैं सोबांचि लेहुगे । सोजब मनको त्यागो तब परमपरपुरुष श्रीरामचन्द्र तिहारो स्वरूपदेईं तामें प्रमाण-4 मुक्तस्यविग्रहोलाभः ॥ यह श्रुति तौने स्वरूपते साहबको अनिर्वचनीय रामनामनामादिक तुमको स्फुरित होइँगे । तामें प्रमाण-* वाङ्मनोगोचरातीतः सत्यलोकेश ईश्वरः । तस्यनामादिकं सर्वं रामनाम्ना प्रकाश्यते ॥ इतिमहारामायणे ॥ ६ ॥ इति बाईसवां शब्द समाप्त ।। अथ तेईसवाँ शब्द ॥ २३ ॥ अवधू कुदरतिकी गतिन्यारी । | रङ्क निवाज करै वह राजा भूपति करै भिखारी ॥ १ ॥