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कबीरजीकी कथा । (२७)
तहँ को भूप पुत्र ते हीना । विनती किया मोहिं अति दीना ॥ मैं वरदान दियो नृप काहीं । बै सुत द्वैहैं तुव तिय माहीं ॥ मोर अंश ते जो यक होई । वदन बाव देखी सब कोई ॥ तब सुलंक नृप आनँद पायो । दै सुत निज तिय महँ जनमायो । व्याघ्रदेव भो जेठ व्याघ्रमुख । अनुज तासु भो सुंदर हरदुख ॥ व्याघ्रवदन लखि पंडित आये । जानि अशुभ वनमहँ फिकंवाये ।। तब कबीर धरि पंडित वेशा । जाइ भूपको दियो निदेशा ॥ ल्याबहु व्याघ्रवदन सुत काहीं । ताते चलिहै। वंश सदाहीं ॥ भूप सुळंकदेव विन शंका । ल्यायो तुरत सुतहि अकलंका ॥ व्याघ्रदेव तेहि नाम सुहंसा । तिनते चल्यो बघेलहि वसा ॥ दोहा-तब कबीर अस वर दियो, जगमें सहित प्रसंश ॥ अचल राज बांध रही, चली बयालिस वंश ॥ २५ ॥ व्याघ्रदेवके सुत नहिं रहेऊ । सो कबीरसों निज दुख कहेऊ ॥ तब कबीर किय मनमहँ ध्याना । कियो तुरत गिरिनार पयाना ॥ चंद्र बिनय नृप रह्या तहाँहीं । रानी इंदुमती रति छाहीं ॥ तेहि पूरुब कबीर उपदेशा । दंपति किय हरिपुरहि प्रवेशा ॥ सो कबीर हारलोक सिधारी । दंपति काहिं योग मति धारी ।। ल्यायो द्रुत गुजरातहि देशा । कीन्हो व्याघ्रदेव सुतवशा ।। दियो नाम जैसिद्ध प्रसिद्धा । पूरित वृद्ध ऋद्धि अरु सिद्धा ।। युवा बैस जैसिद्धहि आई । निशिमहँ चिंता भई महाई ॥ केहि विधि नाम चलै चहुँओरा । क्षत्रीधर्म विजय वरजोरा ।। व्याघ्रदेवसों कह्यो प्रभाता । सो कह पितामहै कहु बाला ।। तबै सलंक देव ढिग जाई । निज मनकी शंका सब गाई ।। सो सादर शासन तेहि दीन्हों । लै कछु सैन्य पयानो कीन्हों ।। दोहा-गढा देशमहँ सो वस्यौ, भूप नर्मदा तीर ॥ कर्णदेवताके भयो, तासु सारिस रणधीर ॥ २६ ॥