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(२४८) बीजक कबीरदास । नाइहैं अर्थात् तीनिऊ अनित्यहैं औ एक जो है मोक्ष सोतो बहुत दूर है यत्नही यत्न करत कोई विरला पावै है । अर्थात् निगमतै रसाढहै रसमय है तात्पर्यवृत्तिकरिके साहबईको बतावैहै सो वह तो कोई जानै नहींहै यह कहै कि चारिफळ लागे हैं ॥ ३ ॥ गयउ बसंत ग्रीष्म ऋतु आई बहुरि न तरुवर आवै । कहै कबीर स्वामी सुखसागर राम मगन है पावै ॥४॥ अरु जो कोई निगमरूपी वृक्षको मोक्षरूपी फल पायोहै वाको पायो है। ताकेा बसंत ऋतु जाइ रहेहै ग्रीष्म ऋतु है जाइहै कहे आत्माको स्वस्वरूप भूलि गयो । सुखको आस्वादन न रहिगंयो कहनलग्यो कि मैंहीं ब्रह्महैं।ग्रीष्मऋतुमें प्रकाश बढ़े है सोयही प्रकाशमें समाइगयो सो फेरि जौचाहै कि, रामोपा, सनारूप ब्रह्मकी भक्तिरूप छायामिलै तौ नहीं मिलै । श्रीकबीरजीकहै हैं किसुखसागर स्वामी के परमपरपुरुष श्रीरामचन्द्र तिनके रामराम रसमें जब मग्नहोय है तबही पावै है जीवको स्वरूप ॥ * आत्मदास्यंहरेस्स्वाम्य॑स्वभावं चसदास्मर | औ शुकाचार्य या फलको चाखिनैहै तामें प्रमाण ॥ * निग• मकल्पतरोनीलितंफलंशुकमुखादमृतद्वसंयुतम् । पिवतभागवतंरसमालयंमुहुरहोरसिकाभुविभावुकोः ॥ ५ ॥ इतिभागवते ॥ ४ ॥ इति बीसवां शब्द समाप्त । अथ इक्कीसवांशब्द॥२१॥ राम न रमसि कौन बँड लागा।मरि जैहै को करिहै अभागा१ कोइ तीरथ कोई सुण्डित केशापाखंड भर्म मंत्र उपदेशा२ विद्या वेद पढ़ि करहंकारा । अंतकाल मुख फाँकै क्षारा ३ | १ क्या ।।