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शब्द । (२४७) कोइ राम रसिक रसपियहुगे सुख जियहुगे ॥ १ ॥ | फल अमृते बीज नाहें वोकला शुक पक्षी रस खाई ।। चुवै न बुंद अंग नहिं भीजै दास मँवर सग लाई॥२॥ | हे जीवौ ! कोई तुम रामरसिकनते रामरस पिऔगे अथवा रामरसिकढुकै रामरस पिऔगे । जो रामरसिकनते रामरस पिऔगे तबहीं सुखते जिऔगे कहे जन्म मरणते छूटोगे अरुआनंदरूप होउगे ॥ १ ॥ वह रामरस कैसाहै। अमृतको फलहै कहे वाके खायेते जन्म मरण नहीं होइहै औ तैने फलमें बीज बोकला नहींहैं अर्थात् सगुण निर्गुणरूप बीज बोकला नहींह औ न मीठों फल होइहै ताही फळमें सुवा चोंच चलावैहै यह लोकमें प्रसिद्धहै । यहां शुकाचार्य रामरसको मुक्त है आस्वादन किया है ताते यह व्यंजित भयो कि, रामरसते ब्रह्मानंद कमही है अर्थात् श्रीमद्भागवतमें है।" वदेमहापुरुषतेचरणारविंदम् ॥ ऐसो कहि शुकाचार्य परम परमपुरुष श्रीरामचन्द्रहीके चरणनको वंदना किया है। औ श्रीरघुनंदनहीके शरण गये हैं । यह वणन श्रीमद्भागवतहीमें है॥ तन्नाकपालवसुपालकिरीटजुष्टं पादांबुनरघुपतेःशरणप्रपद्ये॥ इतिभागवते ॥ औ श्रीराम चन्द्रहीको परतत्त्व तात्पर्यते वर्णन कियोहै सो कोई बिरला संतजन याको अर्थ जानैहै। औ जो यह पाठहोइ “फळ अंकृत बीजनहिं बोकळा तौयह अर्थहै कि फलकी अंकृति कहे आकृति है परन्तु बीजबोकला जे निर्गुण सगुण ते इनमें नहीं आवैहैं इनते भिन्न है । सो रामरसरूप फल है तो रस रूपई है। परन्तु वाकेा रसबुन्दहू नहीचुवैहे अर्थात् अंतकबहूँ नहींहोइ है अनादि अनंतहै। औ काहूके पांचौ शरीर के अंगनहीं भीजैहैं अर्थात् कोई पांच शरीरते भिन्न नहीं होइहै । जब पार्षदरूप रामापासक तेई भंवरहैं ते वाके संग लगे रहैं हैं अर्थात् रामरस पान करतई रहै हैं ॥ २ ॥ निगम रसाल चार फल लागे तामें तीनि समाई ।। यक है दूरि चहै सब कोई यतन यतन कोइ पाई ॥३॥ सो कबीरजी कहै हैं कि, निगम जोहै रसाल कहे आमको वृक्ष तामें चारिफल लागे हैं अर्थ धर्म काम मोक्ष तिनमें तीनिफल तहैं समातहैं कहे नष्टलै