(२६) कबीरजीकी कथा । तब रानहि कबीर बैठायो । ध्यानावस्थित ताहि करायें ॥ योग मार्ग ते तेहि लै गयऊ । हरि हरि लोक देखावत भयऊ । तब विरसिंह भूप विश्वासे । लहन विज्ञानहि हिये हुलासे ॥ दोहा-श्रीकबीरजी तहँ कियो, सुभग ज्ञान उपदेश ॥ | मिटे सकल संसारके, ताके काय कलेश ॥ २० ॥ कह कबीर लै चलहु शिकारा । भूप कियो तेहिं नाग सवारा ॥ गजके ऊपर हाथ सवाऊ । बैठ कबीर लखे सब काऊ ॥ बांधवगढ़के पूरुब ओरा । सदल तृषित भो नृप तेहि ठोरा ॥ कह्यो कबीरै गुरु भगवाना । जल बिन जात सबैके प्राना ॥ तब कबीर परभाव देखायो । तुरत सकल तरु सफल बनायो । प्रगटी वापी निर्मल नीरा । तह अंतर्हित भयो कबीरा ॥ अब बघेल वंशावलि नोई । श्रीकबीर विरचित है सोई ॥ अरु आगम निदेशहू ग्रंथा । तामें है। बघेल सतपंथा ॥ उक्ति कबीरहि की है नीकी । बर्णो मोरि उक्ति नहिं ठीकी ॥ यदपि वंश महिमा निजवरणत । उपजति लाज तदपि अतिसुखरत ।। तेहि अनुसर वरणों कर जोरी । श्रोता दियो मोहिं नहिं खोरी ॥ करि दरशन जगदीश कबीरा । उत्तर दिशा चल्यो मतिधीरा ॥ दोहा-बांधवदुर्ग बघेलको, तालिग जबहिँ कबीर ॥ आए तब नृप रामसिंह, आनंद युत मतिधीर ॥२१॥ लै आगे ल्याए तुरत, बधवदुर्ग लेवाइ ॥ अति सत्कार किया तहाँ, मानि रूप यदुराई ॥ २२ ॥ पुनि कबीर स्थानमें, भूपति गये अकेल ॥ तब कबीर नृपसों कह्यो, मोहिं गुरु कियौ बघेल॥२३॥ तेरे पुरुबके पुरुष, कियो गुरू जस मोहि ॥ मैं लै आयो हंस है, सकल सुनाऊँ तोहि ॥ २४ ॥ वाराणसी जन्म मैं लीन्हो । जगन्नाथ दरशन मन दीन्हो ॥ तहँ समुद्रको करि मर्यादा । गमन्यो गुजरातै अविषादा ॥
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