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शब्द । (२३९) जवलोकको शोकसब त्यागया हंसको रूपसतगुरु बनाई । भूगज्योंकीटको पलटिभृङ्गैकिया आपसमरङ्गदै लैउड़ाई । छोड़ि नासूतमलकूतको पहुंचिया विष्णुको ठाकुरीदीखजाई । इंद्रकुबेरजही रंभको नृत्यहै देवतेतीस कोटिक रहाई॥ १॥छोड़िवैकुंठको हंसआगे चला शून्यमें ज्योतिजगमग जगाई।ज्योति परकाशमें निरखि निस्तत्त्वको आपनिर्भयहुआ भयमिटाई । अलखनिर्गुण जेहिवेद स्तुति करै तीनहूं देवकोहै पिताई।भगवान तिनके परे श्वेत मूरतिधरे भागको आन तिनकोरहाई ॥ २ ॥ चार मुक्काम परखंडसोरहक हैं अंडको छोर ह्यांतेरहाई।अंडकेपरे स्थान आचिंत को निरखिया हंसजब उहांलाई । सहस औद्वादशै रूहहैं सङ्गमें करतकल्लोल अनहद वनाई । तासुके बदनकी कौनमहिमा कहौं भासती देह अति नूरछाई ॥ ३ ॥ महल कंचनबने माणिकतामेजड़े बैठतहँ कलशअखंड छानै । आचिंतके परे स्थान सोहंगका हंस छत्तीसतहँवां बिराजै । नूरकामहल औ नूरकाभुम्य है तहांआनंद सो द्वन्द्वभाजै । करतकल्लोल बहुभांतिसे संगयक हैससहगके जो समाजै ॥ ४ ॥ हंसजब जात षट्चक्रकोबाधकै सातमुक्काममें नजरफेरा । सोहंगके परे सुरति इच्छाकही सहसबामन जहँहसहेरा । रूपकी राशितरूप उनको बना नहीं उपमा इंन्दुजीनिवेरा । सुतिसे भेटिकै शब्दको टेकिचढ़ि देखि मुकामअंकूरकेरा ॥ ५ ॥ शून्यकेबीचमें बिमल बैठक जहाँ सहज स्थान है गैब केरा। नवी मुक्कामयहहंस नत्र पहुंचिया पलकबिलंबढाँ कियोडेरा । तहाँसे डोरमकतारज्यों लागिया ताहिचड़िहंसगो दै दरेरा ॥ ६ ॥ भयेआनन्दसे फंदसब छोड़िया पहुंचिया जहाँ सतलोकमेरा । हेसिनहंस सबगायबजायकै साजिकै कलश वडिलेन आये । युगनयुगबीछुरेमिले तुम आईकै प्रेमकरि अंगसों अँगलगाये । पुरुषनेदर्शनबदोन्हियाहंसको तपनिबहु जनमकी तबनशाये । पलटिकैरूप जबएकसेकीन्हियामनहुं तबभःनु षोडशउगाये ॥ ७ ॥ पुहुपकेदीप पीयूष भोजन करै शब्दकी देहजबहसपाई । पुहुपके सेहरा हंसौहंसिनीसच्चिदानन्द शिरछत्रछाई । दिपैंबहुदामिनी दमकबहुभांति की जहाँ घनशब्दको वुमड़लाई । लगेनहँवरषने गरजघनघरिकै उठत्तहँ शब्द धुनिअति सोहाई ॥ ८ ॥ सुनैसोइ हंसतहँ यूथकेयूथद्वै एकहीनूरयकरङ्गरागै । करतबीहार मनभामिनी मुक्तिमै कर्म औ भर्मसवदूरभागै ॥ रङ्गभूप कोइपर