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( २३४ ) बीजक कबीरदास । क्षर सुधिहोय?' तो यह अर्थ है कि, जो एक आत्माही को सत्य मानोगे तो साहब को बिना अक्षर कहे विना अनादि माने सुधि कहे सुरति तुम को कैसे हायगी । औ कौनसुरति देयगे । औ सुधिबिन कहे जो सुधि न भई ते सहज कहे सो हंसो कैसे होयगो । तेहिते बिनाज्ञाता को ज्ञानकरु कहे अबैते अपने को ज्ञाता मान रहे हैं कि, मैं अपनो विचार करत करत औ सबको निषेध करत करत जो पदार्थ रहि जाय है ताहीको मानिलेउंगो कि, यहीतत्व है सो यह भ्रमछांड़ो, तेरेनानेते साहब न जानिपरेंगे साहब मनबचन के परे हैं । सो जौन विना ज्ञाताको ज्ञान है जो साहब देय हैं काहेते कि, वह ज्ञान काहूको नहीं जाने है जब साहव आपनो रूपदेय हैं, तब वह रूपते जानि परै, साहब हीके रूपको जानापरै है । वाको ज्ञाता कोई नहीं है । सो ज्ञानकरु अर्थात् रकार ध्वनि श्रवण रूप साधनकरु तब साहबई तोका हंसस्वरूपः दैके आपने नामरूप लीलाधामको स्फुरित करायदेयँगे । तीने हंसस्वरूप की आँखीते श्रवण ते साहब को देखु साहबके गुणसुनु । सो कबीरजी कहै हैं कि, यहि तरह ते जाक बिना ज्ञाताको ज्ञान है सोई मेरोजन है । अर्थात् जौनेलोक में हमारी स्थिति है तनही लोकका वहनन है बिनाज्ञाताकोज्ञान कौन कहावै है। जो साहब देय हैं तामेप्रमाण ॥ “तेषांसततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुादयोगं तं येनमामुपयांतित ?? ॥ इतिगीतायाम् ॥ ५ ॥ इति सेलहवां शब्द समाप्त । अथ सत्रहवां शब्द ॥ १७ ॥ राम गाइ औरन समुझावै हार जाने विन बिकल फिरे ॥ १॥ जा मुख वेद गायत्री उचरै ता सु वचन संसार तरै । जाक पाँव जगत उठि लागैसो ब्राह्मण जिउ बद्ध करे ॥२॥ अपना ऊंच नीच घर भोजन घीण कर्म कार उदर भरै।। ग्रहणअमावस ढुकि ढुकि माँगै कर दीपकलिये कूपप॥३॥