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शब्द। (२३३) तुम वह साहब को कैसे समुझौ इंद्रिय विना हैके साहब के लोक को जोहै। भोग सुख है ताकी लेऊ औ बिना जिह्वा द्वैके अनिर्वचनीय जो राम नामहै। ताको स्वादलेऊ । औ पिंड बिहूनाकह पांचौ शरीरते बिहान वैके कहे पाँचौ शरीरनको छोड़िकेहंसस्वरूपमें स्थित हैके अक्षय कहे अक्षय है जाऊ । तुम्हारे अंतःकरण रूपीघरको चौरजहै धोखा ब्रह्म सो मूसि लेय है अर्थात् साहब को ज्ञान चोराये लेय? तुमही अहं ब्रह्म बुद्धि कराये देयहै। काहे ते कि खसम जे हैं साहव ते अछत वने हैं औ तुम अपनो हृदय घरसून करि राख्यो है साहब को नहीं राख्यो अर्थात् साहब को नहीं जान्यो ॥ ३ ॥ बीज विनु अंकुर पेड़ विनु तरुवर विन फूलै फल फलिया। बांझकी कोखि पुत्र अवतरिया विन पग तरुवर चढ़िया॥४॥ इहां याकु अर्थ है बीन बिना कहूं अंकुर होय हैं ? औ पेड़बिना कहे बिना नर कहूं तरुवरहाय हैं ? औ बिना फूलकहूंफल होय हैं ? अरु बांझके कोखिमें कहूंपुत्रहोइहै ? औबिनापगाईतरुवरमें चहै ? सो बीज तो वह ब्रह्मको कहौहौ सोतो शून्य है, कोईपदार्थनहीं है अंकुर कैसे भयो कहे कैसमाया सबलित ब्रह्म भये । औ पेड़ जड़ मायाको कहौ सो तो मिथ्या है संसार तरुवर कैसे भयो । औज्ञानरूप जो फूल है ताहूको तो मूलाज्ञान कहौ हौ, सोऊ मिथ्या है, कहो तो मुक्तिरूपी फल कैसे फरयो । औ मनको ते जड़ कही है. ताका अनुभव प्रवोधरूपी पुत्र कैसे भयो । औ आत्मा को तौ अकर्ता. कही है। मन बुद्धि चित्तते भिन्न है सो बिना पांव संसार वृक्षको चढ़के कैसे चैतन्याकाशको पहुंच्यो ॥ ४ ॥ मसि विनु दाइत कलम विनु कागद विनु अक्षर सुधि होई। सुधि विनु सहज ज्ञान विन ज्ञाता कहें कबीर जन सोई॥६॥ विना दुआइति मसि कैसे रहैगी अर्थात् मनको ते मिथ्या कहै। हौ मनको अनुभव कैसे रहैगो । वह मिथ्याई होयगो। औ बिना कागज कलम कहा करैगी अर्थात् देहन्द्रियादि अंतः करण ते मिथ्यै कहौ हौ ज्ञान केहिके आधारहोयगो जहां बुद्धिरूपी कलमते लिखौगे निश्चय करौंगै जो यह पाठ होय ‘‘बिनअ