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(२३२ ) बीजक कबीरदास । बिहून कहे निराकार ब्रह्म वैके नाचन लग्यो । अथवा राजै कहे शोभित भयो सो तुम ते शरीरते भिन्नहो जैसे देढिया ते दीप भिन्न रहै है । वह सोहं शब्द तो शरीरको है वाको कहे तुम काहे धोखा में परेहौ । तुम निर्गुण सगुणके परे जो है साहव ताके हौ तिनमें लगौ । निर्गुण सगुणके परे कैसे साहब सो कहै हैं ॥ १ ॥ कर विनु वाजे श्रवण सुनै विन श्रवणै श्रोतासोइ । पाटन स्ववश सभा विनु अवसर बूझो मुनिजन लोई ॥२॥ | साहब के लोकके जेवाजा ते विन कर बानैं हैं काहेते कि वहां के ने चाना हैं ते पांचभौनिक नहीं हैं, औ उहांके जे बासी हैं तिनके शरीर पांचभौतिक नहींहैं अर्थात् मनबचन के परेही औं प्राकृतजे हैं प्रकृति संबंधी पदार्थ साकार औ अप्राकृत जो हैं निराकार ब्रह्म लोक प्रकाश ताहूते विलक्षण है । कर बिना कह्यो याते साकारौ नहीं है औ सो बानै है याते निराकारी नहीं है। ॐ सोई श्रोता जे हैं लोकवासी ते अवनते सुनै हैं औ श्रवण नहीं हैं याते साकारौ नहीं है औ श्रवणते सुनै है याते निराकारी नहीं है । मायाब्रह्म जीव को जो अरुझा लाग्योहै सो जीव साहवको स्मरण करै ताके पाटन कहे पटाइलवे को साहब स्ववश अथवा नौकर जाको राखैहैं ताका पट्टा लिखि देइहैं सो पाटा कहाँवै है सो इहां पाटन बहु बचन है सो जीव उनके शरण जाय तिनको पाटन के लिखि दोबे में अपनायलीबे मैं स्ववश हैं तामें प्रमाण ॥ ( सकृदेवप्रपन्नायतवास्मीतिचयाचते । अभयंसर्वभूतेभ्योददाम्येतद्व्रतम्मम ) ॥ औ बिना अवसर कहे बिना काल उनकी सभा लागी है वहां कालकी गात नहीं है औ वाजन सदाबांजैहैं अर्थात् सदा रास उहां होता हैंहै । सो हे मनन शील मुनिलोगो! तुम उनहीं को समुझौ औ उनहींको मनन करो वहधोखा ब्रह्मे के मनन कीन्हेते तुम्हारो जनन मरण न छूटेगो ॥ २ ॥ इन्द्रि विनु भोग स्वाद जिह्वा विनु अक्षय पिण्ड बिहूना । जागत चोर मॅदार तहँ मूसे खसम अछत घरसूना ॥ ३ ॥