(२४) कबीरजीक कथा ।
थैली परी रही जेहिं ठौरा । सो थल रहै भूपको औरा ॥ सो पठयो तुरंत असवरा । कह्यो देउ धन है हमारा ।। जेहिं वह नगर कह्यो से राजा । हम न देब विनसमर दराजा ॥ यह सुनि भूप तुरत चढ़ि आया । उभय भूप अति युद्ध मचायो । दोऊ लरि मरिगये तहाँही । तब कबीर कह माता काहीं । जो चहे आपन कल्याना । तौ परधन नहिं लेय सुनाना ।। दोहा-जो परधन लेतो जननि, तासु हाल यह होय ॥ लगति ने हाथ वराटिका, नाहक कलह उदोय॥ १६॥ येक अप्सर आयके, मोहन चयो कबीर ॥ ताहि मातु कहि किय बिदा,करी न मनसिज पार १६ | कवित्त । । येक सबै जाय जगदीश पुरी वास कीन्हो भयो तहँ संतन समागम सोहावना । कोई संत बोल्यो कियो काशी में चरित्र केते इते कीन्ही काहे नहिं महिमा देखावन ।। ताहीं समय कौतुक कबीर कीन्हो रघुराज देखि सब संतनको मंडल भो पावन । एक रूप हाथ चौर हांकते जगतनाथै एक रूप साधुन समाज प्रगटावनो ॥१॥ पुनि जगदीश पुरी ते सोई । चल्यो कबीर महामुद मोई ॥ बांधव गढ मम दुर्ग महाना । शिवसंहिता जासु परमाना ॥ सतयुग वरुणाचल कहवायो । कलि बांधवगढ़ नाम कहायो । पूरुव पुरुष रहे जे मोरा । रहे ते सब गुजरातहि ठोरा ॥ तेऊ पाइ कबीर निदेशा । विंध्य पृष्ठ आये यहि देशा ॥ तब ते बांधवगढ भुवालै । कीन्हों नृप ववेल निज आलै ॥ आगे तासु कथा मैं गैहौं । सब श्रोतनको सविधि सुनैहौं ॥ विरसिंहदेव वघेल भुवाला । सुनि कबीर आवनको हाला ॥ चहुँकित दूत दियो बैठाई । दियो कबीरहि खबर जनाई ॥ और पंथ वै नहिं कढि जाई । सावधान रहियो सब भाई ॥ गुणि विरसिंहदेव अभिलाषा । ताको शिष्य करन चित राखा ।। बांधवगढ कबीर सिधारे । राजा अगू लेन पधारे ॥