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कबीरजी की कथा ।

                          (२३)

तहँ इक मारग मोहर थैली । परी रही अतिशय तहँ मैली ॥ माता थैली दौरि उठाई । तब वारये। कबीर तहँ जाई ॥ परधन ले न मातु दे डारी । परधन दुइ मुहँकी तरवारी ॥ बैठ वृक्षतर देख तमासा । यह कार है केतनको नासा ॥ माता पूत बैठ तरु छांहीं । चार सिपाही कढ़े तहाँहीं ॥ दोहा-थैली चारि निहारिकै, हर्षित लियो उठाइ ॥ चलत भये तेहि पंथको, लिय कबीर पछिआइ ॥१३॥ जाय सिपाही इक पुरमाहीं । डेरा किये वणिक घर माहीं । सो ६ कियो कबीरहु डेरा । एक सिपाही यक कहँ टेरा ॥ डेरामें तुम दोउ रहि जाहू । बै जन जाहिं करन निरवाहू ॥ अस कहि ६ जन गये सिधाई । लियो हाटमाँ कछुक मिठाई ॥ बैठि कुवाँ लागे जब खाने । तब आपुसमहँ संमत ठाने । माहुर भरें मिठाई माँहीं । जामें है खातै मरिजॉहीं ॥ नातो हिस्सा है चारी । हम तुम होहिं उभय हिसदारी ॥ अस विचारि भार माहुर दीन्हे । उत विचारि डेरा दोउ कीन्हे ॥ जब वै आइ खाइ इत सोवें । तिनके तुरत प्राण हम खावें ॥ इतनेमें दोउ लियो मिठाई । आय गए डेरै श्रमछाई ॥ कह्या दुहुँनस खाहु मिठाई । इन कह थके हैं हम भाई ॥ अस कहि दोउ सिपाही सोये । श्वास बनत तिनका तहें जेये ॥ दोहा-तबै मिठाई खायकै, दोहुनके गलमाहिं ॥

मरि कटारी पार किय, दोङ मरे तहाँहि ॥ १४ ॥

कछुक कालमहँ विष त लाग्यो । ते दोऊ तुरतै तनु त्याग्यो । भोर वणिकलखि शोणितधारा । कोतवालके जाय पुकारा ।। कोतवाल तेहिं दोष लगायो । ताकी संपति सकल लुटाये ॥ मोहर और वणिक धन लेता । गयो भूप भंडारहि तेतो ॥ कह कबीर लखु मातु तमाशा । ये मोहर दोउ ओर विनाशा ॥ माता कह्यो सुवन चलु अनैतै । कह कबीर लखु और दृगनतै ॥