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शब्द।। ( २०५) आपुहिं गुरू कृपा कछु कीन्हो, निर्गुण अलख लखाई । सहज समाधि उनमुनी जागै,सहज मिलै रघुराई ॥३॥ सो गुरुजहैं सद्गुरुते जब आपही कृपाकरै हैं तब निर्गुण जे ब्रह्महै ताके अलख लेखावै हैं कि वे कछुवस्तुही नहीं हैं अर्थात् अलख हैं धोखाहै साहब कब मिलै जब सहज समाधि उनमुनी मुद्रा करि जो सर्वत्र ब्रह्म देखैहै तौ उनमुनी रूप निद्राते जोग अर्थात सहजही समाधिक चित् अचितरूप विग्रह या जगत् साहवको है यादेखै तौ सहजहीमें परम परपुरुष जे श्रीरामचन्द्र हैं। ते मिलें ॥ ३ ॥ जहँजहदेखौतहँतहँसोई, मन माणिक वेध्यो हीरा। परम तत्त्व यह गुरुते पायो, कह उपदेश कबीरा ॥४॥ अधित अमौलिक आगे कहिआये ताका तो नेतिनेति कहै हैं वामें काहूको मनहीं नहीं बेध्यो अर्थात् धोखही है अब साधुनको मन जो माणिक है अनुराग पूर्वक लागे सो साहब जे हीरा हैं तिनमें बेध्यो है । ऐसे जेसाहव चित्चितुरूप जहाँजहां देखौहौ तहांतहां सोई है यह कबीरजी कहै हैं कि यह धरम तत्वको उपदेश मैं गुरुते पायो है ॥ ४ ॥ इति सातवां शब्द समाप्त । अथ आठवां शब्द ॥ ८॥ | अवतारविचार ।। संती आवै जायसो माया ।। है प्रतिपाल काल नहिं वाके ना कहुं गया न आया ।।१।। क्या मकसूद मच्छ कच्छ होना शंखासुर न संहारा ।। अहै यालु द्रोह नाहिं वाके कहहु कौनको मारा ।।२।। वे कृत्त न वराह कहावें धरणि धरै नहिं मारा। -