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(२०४) बीजक कबीरदास । | अथ सातवां शब्द ॥ ७॥ संतो कहौ तो को पतिआई । झूठा कहत सांच वनिआई। लौकै रतन अवेध अमौलिक नहि गाहक नहिं सांई। चिमिकि चिमकि चमकै दृग दुई दिशि अरव रहा छरिआई आपहि गुरू कृपा कछु कीन्हो निर्गुण अलख लखाई ।। सहज समाधि उनसुनी जागै सहज मिलै रघुराई ॥ ३ ॥ जहँ जहँ देखौ तहँ तहँ सोई मन माणिक वेध्यो हीरा ।। परम तत्त्व यह गुरुते पायो कह उपदेश कवीरा ॥ ४ ॥ सन्तो कही तो को पतिआई झूठा कहत सांच बनि आई। हे संतो ! झूठा जो ब्रह्महै ताको कहत कहत जीवन सांचबनि आई बही ब्रह्मको सांच मानलिये है अब जो मैं सांच साहबको बताऊहीं तो को पतिय अर्थात् काई नहीं पतिआय है ब्रह्महीमें लगे हैं ॥ १ ॥ लौकै रतन अवेध अमौलिक नहिं गाहक नहिं साँई। चिमिकिं चिमिक चमकै दृग दुई दिशि अरब रहा छरिआई | लौ लगनको कहै हैं सो वा ब्रह्म माही हौं या जो लौ कहेलगन ताही ज्ञानको रतनकै अबधित अमोलिक मानि जामें गाहक औ साई नहीं है ( अर्थात् दूसरा तो हई नहीं है गाहक सांई कहते होय ) सो वही ज्ञानको ब्रह्म मानि लियो है । तौने ब्रह्म उनके दृगन में चमकि चुमकि चमकैहै, सर्वत्र देखो परै है। जोकहो लोक प्रकाश ब्रह्मही देखो परै है सोनहीं अरु जो या हठ हैं कि, सर्व ब्रह्मही है सोईजो बरहा है सो छरिआई रह्येहै सर्वत्र ब्रह्मही देखायेहै जैसे बरहामें जलबड़े सर्वत्र फैलिजाय है ऐसे अहंब्रह्मास्मि जो या ज्ञान सो जब बढ्यो तब याको हठहीरूप ब्रह्मदेखो पैरैहै ॥ २ ॥