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शब्द । ( २०३) जीवो ! अपनेते काहे नहीं बिचारिलेउ हौ कि माया हमारे मन में पैठिकै और औरमें बुद्धि निश्चय करावै है ॥ २ ॥ भाई के संग सासुर आई सासु सौतिया दीन्हा।। ननँद भौज परपंच रच्योहै मोरनाम कहि लीन्हा॥३॥ प्रथम याको भयभई तब या बिचार कियो कि “द्वितीयादै भयं भवति ॥ तवहीं माया लगी याते भाई भयो । मायाको भय सोई भाई के साथ नाना मतवारे जे गुरुवालोग तिनको जो मन है सोई सासुर है तहां आई ॐ तिन गुरुवनकी बाणी जाहै सोई सासुहै काहेते ब्रह्मकी उत्पत्ति बाणीहीसे होती है सो गुरुवनकी वाणी रूप जो मायाकी सासु ताकी सवति जो दीक्षारूप सो मायाको देतभई। सो मायाते दैवयोग छूट उजाय परन्तु दीक्षासवतित नहीं छूटै है । सो मायाकी सवतिदीक्षा काहेतेभई,माया तो ब्रह्मकी स्त्री है सो ताही ब्रह्म को दीक्षाहू लगावै है सो ज्ञान विद्यारूप है सो ब्रह्मके साथही भई, ब्रह्मकी बहिनिभई, मायाकी ननँद कहाई तौन अविद्या ब्रह्मको पति बनायो सो भौजी आप भई सो ये दोऊ भौजी नॅनद् मिलिकै परपंच रच्येहै अरु जीव कहै है मेरो नाम कह दिया है कि, जीवही सब करै है ॥ ३ ॥ समधीके सँग नाहीं आई सहज भई घरवारी। कहै कबीर सुनो हो सन्तो पुरुष जन्मभोनारी ॥४॥ मायाकी कन्या बुद्धि कहि आये सो बुद्धि कुँवारहीमें नानाजीवनको जारपति बनायो सब जीव साहबके अंशहैं ताते सब जीवनके बाप साहब ठहरे सो मायाके समधी भये । तिनके घरवारी कहे आपही सब जीवनके बिवाहलेत भई अर्थात् बशकर लेत भई । सो कबीरजी है हैं कि, हे संतो जीव ! जो पुरुष है सो माया के साथनारी द्वैगयो ॥ ४ ॥ इति छठाशब्द समाप्त ।