शब्द । ( १९९) न्यारो न्यारो भोजन चाहैं पांचौ अधिक सवादी ।। कोउ काहूको हटा न मानै आपुहि आपु मुरादी ॥२॥ | अपने अपने न्यार न्यार भोजन चाहै हैं पांचौं बड़े सवादी हैं । आकाश श्रोत्रइन्द्रियपधानहै साशब्द चाहै है । वायु त्वचा इन्द्रिय प्रधान सो स्पर्शको चाहै हैं । तेन चक्षुइंद्रिय प्रधानहै स रूपको चाहै । जल रसनेंद्रिय प्रधानहै। सो रसको चाहै है धरती घ्राणेंद्रिय प्रधानहै सो गधको चाहैहै औ माया जीवहीका ग्रासन चैहहै । कोईकाहूको हटको नहीं मानैहै आपही आप मालिक वैरहेहैं । आपुही आप आपनी मुरादिकहे वांछापूरकरहैं ॥ २ ॥ दुर्मतिकेर दोहागिनिमेटे ढोटै चापचपेरै। कहकवीरसोई जनमेरा घरकीरारिनिवेरे ॥३॥ दुर्मति जेहैं गुरुवालोग ( जे परमपुरुष श्रीरामचन्द्रको छोड़ि आत्मही के सत्य मानै हैं औ या केहहैं कि, सबसुख करिलेउं वहां कछु नहीं है ऐसे जेनास्तिकहैं ) तिनकी दाहागिनिकहे नहींग्रहणलायक वाणी तिनको मेटिकै कहे छोड़िकै; टोटाले पांचौ तत्त्व तिनको जोहै चाप कह दबाउब ताकेा आपै . चर्पोरै कहे दाइलेइ । अर्थात् वे न दबावन पावें । आपने अपने विषयनमें मनको खीच लैजाइह तहां मन न जानपावै । सो कबीरजी कहै हैं कि,जोपारि- ख करिकै शरीर जो घर है तौनेमें जो पांचों इन्द्रिनको झगड़ा है ताको निबेरै कहे सब तत्त्व जे पृथ्वी आदिक हैं तिनमें लीन ने पांचों इंद्रिय हैं। तिनकी जे विषय हैं तिनको निबेराफेरै कि, भगवकी अचिद् विग्रहहै । पृथ्वी आदिक तत्त्वरूप करिकै जो देखे है; इन्द्रियरूप करिकै जो देखे औ विषयरूप करिकै जो देखैहै सो न देखें । औ यह मानै कि, मैं जोह, जीवात्मा तौनेकी एकी नहीं हैं; काहेते कि, मैं चिदचित् विग्रहहौं, ये जड़ विग्रहहैं, इनते भिन्न सो ये हैं जड़ ते आत्मैकी चैतन्यता पाइकै आपसमें लड़हैं । सो इनते जब | १ दुर्मत अर्थात् दुष्ट बुद्धिवाले पुरुषजनको परमार्थका तो ज्ञान है ही नहीं परन्तु देखादेखी वेष धारनकर अथवा कुलाभिमानसे गुरु बने बैठे हैं ऐसे जे झूठे गुरुयोग हैं। | उनको गुरुवाकहते हैं उन्हींको दुर्मत कहते हैं ।
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