( १९४ ) बीजक कबीरदास । स्थूल सूक्ष्मादिक ने पांचों शरीर हैं तेईपियालाहैं । स्थूलसूक्ष्म कारण करि कै विषयानंद पियै हैं । औ महाकारण कैवल्य ते ब्रह्मानंदपियहैं । पांचौ शरीर पियाला ते निकसिकै जे पुरुष साहबको दियो जो हंसस्वरूपहै तामें स्थित वैकै साहबको प्रेमरूपी जो अमृत है ताको अँचवै हैं जाते जन्म मरण ने होई। तिन को जगत्के रागरूपी नीरकारकै भरी जो नदी है जाको आगे वर्णनकरिआयेहैं। "नंदियानीर नरकभरि आई सो तिनको राखै कहे छारई हैं अर्थात् झरही हैं । अथवा संसारमें जो रागकियेहैं सो नरक भरीहैं ताको निकारिकै रसरूपी भक्ति जो साहबकी नीर ताको भरिराखे । सो कबीरजी कहै हैं कि, सोई युगयुग जवैहै, कहे वहीको जनन मरण नहीं होय, जो या भांति परमपुरुष जेश्रीराम- चंद्र तिनके प्रेमरूपी सुधारसको चाखैहै ॥ ८ ॥ | इति दूसराशब्द समाप्त । अथ तीसरा शब्द् ॥ ३॥ संतौ घरमें झगराभारी। रातिदिवस मिली उठिउठि लागें पांचढोटायकनारी ॥१॥ न्यारोन्यारो भोजन चाहैं पांचौ अधिक सवादी । कोइकाहूको हटा न मानै आपुहिआपुमुरादी ॥२॥ | दुर्मति केरदोहागिन मेटे ढोटैचाप चपेरै ।। कहकवीरसोई जन मेरा घर की रारि निवेरै ॥ ३॥ सन्तोघरमें झगराभारी।। रातिदिवसामाले उठिउठिलागें पांचढोटायकनारी ॥१॥ आगे या काहि आयेहैं कि बिना पियाला अमृत अवैवैहैं औ ने नहीं अचवहैं। ति नको केही हैं । हे संतौ ! हे जीवौ ! या घर जो शरीर है तामें भारी झगरा मच्यो है । पाँचौ ढोटा जे पांचौ तत्त्वहैं औ नारी जो मायाहै सोउठि उठिलॉगैहैं। कहे झगराकर हैं । यह उपाधिराति दिन जीवको लगीर हैहै ॥ १ ॥
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