। (१९०) बीजक कबीरदास । अथ दूसरा शब्द ॥२॥ संतौ जागत नींद न कीजै । काल न खाय कल्प नहिं ब्यापै देहजरानाहिं छीजै ॥ १ ॥ उलटी गङ्ग समुद्रहि सोखै शशि औ सूरगरासै । नवग्रह मारि रोगियाबैठे जलमें विंब प्रकासै ॥ २॥ विनुचरणन को दशदिशि धावै विन लोचन जगसूझै ।। ससा सो उलटि सिंह को ग्रास्त्रे ई अचरज को बूझे ॥३॥ औंधे घड़ा नहीं जल डुवै सूधेसों घट भरिया। जेहिकारण नर भिन्न भिन्न करु गुरुप्रसादते तरिया ॥४॥ पैठि गुफामें सब जग देवै बाहर कछुव न सूझै । उलटावाण पारथिव लागै शूराहोय सो बूझे ॥५॥ गायन कहे कबहुं नहिंगावै अनबोला नितगावै ।। नटवर बाजीपेखनी पेखै अनहदहेतु वढ़ावै ॥ ६॥ कथनी वदनी निजुकै जोहें ईसव अकथकहानी । धरती उलट अकाशहि वेधै ई पुरुषहि की बानी ॥ ७ ॥ विना पियाला अमृतअचवै नदी नीरभरि राखे । कई कबीर सो युग युगजीवे राम सुधारस चावै ॥८॥ संतो जागत नींद न कीजै । काल न खाय कल्प नहिं ब्यापै देह जरानहिछीजै ॥ १॥ हे संत ! हे जीवौ ! तुमतो चैतन्यरूप हौ तुम काहे को सेवौहौ अर्थात् काहे जड़ भ्रममें परेहो मायादिक तो जड़ हैं औ तिहारो अनुभव जो ब्रह्महै सोऊ जड़ है । काहेते कि, तिहारा मन तो जड़है ताहीकी कल्पना ब्रह्लहै ।
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