रमैनी। ( १८९) दुःख सँताप कष्ट वहुपावै । सो न मिला जो जरत बुझावै६ मोर तोर में जर जग साराधिग जीवन झूठो संसारा॥७॥ झूठे मोह रहा जगलागी ।इनतेभागि बहुरि पुनिआगी॥८॥ जेहित कैराखे सवलोई ।सो सो सयान वाचे नहिं कोई॥९॥ साखी ॥ आपु आपु चैते नहीं, औ कहतौ रिसिहा होइ॥ कहकवीरसपनेजगै, निरस्ति अस्तिनहिं कोई॥१०॥ जोजियअपनेदुखेसँभारू । सोदुखव्यापिरहोसंसारू ॥ १॥ मायामोह बंध सवलोई। अल्पै लाभ मूलगो खोई ॥ २॥ मोरतोरमें सवै विगूता । जननी उदर गभमहँसूता ॥ ३ ॥ ई बहुरूप खेलै बहु बुता । जनभराअसगये बहूता ॥४॥ हे जीव ! जैन दुःखयह संसार में व्यापिरह्यो है तौने अपने दुःखकों सँभारु अर्थात तौने दुःखसे निकसु ॥ १ ॥ मायामोहमें सब बँधेहौ सो अल्पतो लाभ है अर्थात् विषय सुखतो थोरही है तिन सबकेमूल संपूर्ण दुःख के मेटनवारे जे परमपुरुष श्रीरामचन्द्र हैं ते खोइनाइ हैं कहे बिसरि जाय हैं ॥ २ ।। मोर तर याही में सब जीव बिगूता कहे अरुझि रहै है याहीते जननीके उदरमें सदा सूतत है अर्थात् गर्भवास नहीं मिटे है ॥ ३ ॥ जैसे भौंरा फूलनमैं रस लेनको जाइ है संध्या है गई तब कमल संपुटित द्वैगयो तब फैसिगयो तैसे ये जीव बहुरूपते बहुत पराक्रम कारकै खेलखेले हैं कहे विषय रसलेनको जाय ही मायामें हँसिजाय हैं ॥ ४ ॥ उपजैखपैयोनिफिरिआवै।सुखकलेशसपनेहुँनहिंपावै ॥६॥ दुःखसँतापकष्ट वहुपावै । सो न मिला जो जरतबुझावै॥६॥ उपजै है है खपैकहे मेरै है पुनि पुनि योनिमें फिरि आवै है सुखको लेश सपन्यो नहीं पावै है ॥ ५ ॥ दुःख संताप कष्ट बहुतपावै है जो आगीते जरत
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