(२०) कबीरजीकी कथा । श्रीजगदीश पुरी यहि काला । गई आगि लागि पाकहि शाळा । पुः पठायो तुरत सवार । पुरी लोग सब कियो उचारां ॥ जो कबीर वह दिन न वुझावत । ती सिगरी नगरी जारि जावत ॥ यह सुनि भूपति बहुतं डेराना । रानी सों अस वचन बखाना ॥ है कबीर मूरति भगवाना । याको हम कीन्हो अपमाना । ताते अब अस करहु विधाना । पैदल तेहिं दिग करहिं पयाना ॥ त्राहि त्राहि कहि चरणन गिरहीं । जो वह कहै तबै घर फिरहीं ॥ असे विचार राजा अरु रानी । राज विभव तहँ तजि डर मानी ॥ पैदर चले सुलाज विहाई । सचिव प्रजा सबै लिय पछि आई । दोहा-राजा रानीकी विनय, सुनि कबीर मतिधीर ॥ बहत नीर दृग पीर विन, कियो धीर युत भार ॥ ७ ॥ तहँ कवित्त प्रियदास यह, कीन्हो सुभग बखान ।। सो मैं इत लिखि देतह, श्रोता सुनहु सुजान ॥ ८ ॥ कवित्त-कहीं राजा रानी सो जो बात यह सांच भई आंच लागी हिये अब कहो कहा कीजिये । चलेही बनत चले शीश तृण बोझ भारी गरे सो कुल्हारी बांधि तिया संग भीजिये ॥ निकसे बजार हैकै डारि देई लोक लाज कियो मैं अकान छिन छिन तन छीजिये । दूरि ते कबीर देखि ६ गये अधार महा आये उठे आगे कह्यो डारि मति रीझिये ॥ १ ॥ रह्यो सिकंदर शाह सुनाना । सुनेहु कबीर प्रभाव महाना ॥ तब लिखि पठयो येक खलीता । सुनियत तुम्हैं कबीर पुनीता ॥ न्याय व्याकरण शास्त्र अनंता । करै एक जेहि संमत संता है हिंदू मुसल्मान दोउ दीना । निज निज मत देखो सुख भीना ॥ ऐसो शास्र देहु पठवाई । तो हम जानै अजमत भाई ॥ तब कबीर लिखि उतर पठायो । सहस शकट कागज पठवाय ! ऐसो सुनि कबीर खत शाहा । अति विस्मित ढुकै मनमाहा ॥ सहस शकट भरि कागज़ कोरा । पठयो दूत कविरकी वोरा ॥ सहस शकट कागज जब आयो । तब कबीर अति आनँद पायो ।
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