(१९) कबीरजीकी कथा । आवते कबीर नाहीं । छूछे हाथ कौन विधि जाहीं ॥ परयो सोच तब हरिको भारी । मम जनके पितु मातु दुखारी ॥ धरि व्यापारी रूप मुरारी । भरि बैलन बहु चाउर चारी ॥ आय कबीर भवन महँडारे । कह्यो पठायो पूत तिहारे ॥ माता कह्या कहां सुत मोरा । कोहुकी वस्तु लेत नहिँ छोरा ॥ तब कबीर घरमें व्यापारी । डारि अन्न गे अनत सिधारी ॥ जब कबीर गे भवन सिधारी । देखि अन्न हरि कृपा विचारी ॥ साधु तुरंत बोलाय लुटायो । यक दिनको घर नाहिं धरायो । तुरत टोरि निज तानो बानो । राम भरोसा के उर आनो ॥ दोहा-तब काशीके विप्र सब, बैठ कबीरहिं घरि ॥ | मुडअनको रौटी दियो, हमोहिं बैठ मुख फेरि ॥५॥ कह्यो कबीर न करौ संदेहू । मोहिं बजार भर गवननदेहू ॥ भाग गये कबीर मिसि येही । प्रभु कबीर हित भे संदेही ।। आये धरि कबीरको रूपा । सबको भोजन दियो अनूपा ॥ यथा योग है सबन बिदाई । पुनि लिय अपनो वेष छिपाई ॥ तब कबीरको बढ्यो प्रभाऊ । मानै रंकहु राजा राऊ । श्रेता सुनहु पुरान प्रमाना । रागभक्ति है। धर्म प्रधाना ॥ राम विमुख जो कोउ जग होई । मूल सकल पापनको सोई ॥ लखि कबीर अति निज प्रभुताई । गुन्यौ उपद्रव ताहि महाहे ॥ मेटन हेतु महाप्रभुताई । गणिका द्वार गये प्रगटाई ॥ दै धन गणिकाको गहि हाथा । चले बजार बनारहि साथा ॥ यह लखि भये संत जन शोकी । लहे अनंद असंत अशोकी ॥ इक दिन गये भूप दरबारा । उठ्यो न राजा तुच्छविचारा ॥ दोहा-तब कबीर मनमें गुन्यो, भयो अनादर मोर' । आदर और अनादरौ, सहि जातौ है थोर ॥ ६ ॥ रहे भरे जळ घट बहुतेरे । ढरकायो तिनके कर फेरे ॥ राजा पूछयो का यह कीजै । तब कबीर बोल्यो सुन लीजै ।।
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