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( १८) कबीरजीकी कथा । तत्र तिय कर फुलका परि आयो । कछु दिनमें ताते सुत जाय ।। जनत पुत्र नभ बजे नगारा । तदपि जननि उर सोच अपारा । सो सुत लै तिय फॅक्यो दूरी । कढ़ी बोलाहिन तहँ यक रूरी ॥ सो बालकहि अनाथ निहारी । गोद राखि निम भवन सिधारी ॥ लालन पालन किय बहुभंती । सेयो सुतहि नारि दिन राती ॥ दोहा-कछक सयान कबीर जब, भये भई नभवानि ॥ सो प्रियदास कवित्तको,इक तुक कह्यो बखानि ॥ ३ ॥ ( भई नभवानी देह तिलक रमानी करो करो गुरु रामानंद गरे माला धारिये ) पुनि कबीर बोल्यो अस वान । मोहिं मलेच्छ लियो गुरु जानी । रामानंद मंत्र नहिं दैहैं । पै उपाय हम कछु,रचि हैं । अस कहि गंगा तोरे आयो । सीढी तर निज वेष छुपायो । मज्जन हित रामानंद आये । तेहि अँगुरी निज चरण चपाये ॥ रोय उठ्यो तहँ तुरत कबीरा । रामानंद कह्यो मतिधीरा ॥ राम राम कहु रौवे नाहीं । गुन्यो कबीरः मंत्र सोइ काहीं ॥ रामानंदी तिलकहि धारयो । माल पहिरि मुख राम उचारयो । मातपिता मान्या बौराना । रामानंदहि वचन बखाना ॥ याको प्रभु तिमि वैकलवायो । राम कहत सब काज भुलायो । रामानंद कबीर बोलायो । ताके बिच परदा बँधवायो । कहौ मंत्र तोको कब दीन्हो । कह्यो कबीर जौन विधि कीन्हो ॥ गमनाम सब शास्त्रन सारा । वार तीन मोहिं कियो उचारा ॥ दोहा-रामानंद कबीरको, गुनि अनन्य हरिदासु ॥ परदा टारितु मिलत भे, दृगन बहावत आँसु ॥ ४ ॥ सुरति राम नामहि महँ लागी । कछु गृहकाज करहिं बड़भागी ॥ ॐ विकनन पट नाहि बजारै । जो ; माँगै ताही दैदौरै ॥ परखे रहैं मातु पितु ताके । गनै न कछु दुख क्षुधा तुषाके ॥