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( १९८) बीजक कबीरदास । साखी । जेकरे शरलागै हिये, तब सो जानैगा पीर । लागतौ भाग नहीं, सुखसिंधु निहारु कबी॥६॥ तेहिवियोगतेभये अनाथा । परिनिकुंजवनपावनपाथा॥१॥ वेदौ नकल कहै जोजानै । जो समुझैसोभलो न मानै ॥२॥ | संपूर्ण जे जीव हैं ते परमपुरुष ने श्रीरामचन्द्र तिनहीं के वियोगते अनाथ हैगये। निकुंज बन जो बाणीको जालहै नाना मत जिनमें परिकै एक सिद्धान्त मत परमपुरुष श्रीरामचन्द्र मिलनके पाथ कहे पंथ न पावत भये ॥ १ ॥ जिनको पूर्व कहिआये कि साहब को नहीं जानै स्वांगभर बनावै हैं तिनके हे जीवो! जो तें जानै तौ वेदहू वे मतवारेन को नकलई कहै हैं तो जो साहब को समुझैहै ऊ उनको नहीं मानै है नकलई मानै हैं ॥ २ ॥ नटवरवंद खेल जो जानै। ताकरगुण जो ठाकुरमानै॥३॥ उहैजो खेलैसवघटमाहीं । दूसरकोलेखा कछुनाहीं ॥४॥ भलोपोच जो अवसर आवै । कैसे कै जनपूरा पावै ॥॥ | अव योगिने को कहेहैं। नट कैसे बंटा जो कोई खेलै जानै है कहै यहनाव आत्माको ब्रह्मांडमें चढ़ाइकै फिरिउतारै जाने है ताको गुण यह है कि, समाधि लगि जाइहैं कहे ब्रह्मरूपद्वैजाइहै सो वही ब्रह्मको जो कोई ठाकुर मानैहै ।। ३॥ अर्थात् जैनब्रह्ममैं हूँ नाउहौं तैनै घटमें है दूसरे की कछुनहीं लगे है अर्थात् दूसरो पदार्थ कछुनहीं है ।। ४ । सो जे यहमत कैरै तिनको भलो पोचंकहे नीको नागा अवसर आवतहै अर्थात् जब जीवमें लीन है ब्रह्मरूप वैनाइहै यातो भलो अवसर। ॐ जव समाधि उतरिगई जैसकै तैसे द्वैगई या पॅचअवसरवै सो कैसे कै जन पूरो ज्ञान पावै कि हम पूर्णब्रह्महैं तो सर्वत्र पूर्ण - है जो या ब्रहै नाता तो समाधिउतरेहूमें वही वृत्ति बनी रहती ॥ ५ ॥ साखी ॥ जेकरे शरलागै हिये, तब सो जानैगा पीर । लागैतौ भागे नहीं सुखसिंधु निहारु कवीर ॥६॥