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रमैनी । (१९५७) मुखकछुऔरहृयकछुआना।सपन्योकवहूंमोहिनजाना॥३ ते दुखपावहिं यहिसंसारा । जोचेतौतौहोहुननारा ॥४॥ जेनरगुरुकीनिन्दाकरई। शूकरवानजन्मसोधरई॥॥ | मुख में तो और है कि, हम संन्यासी हैं हमसाधु हैं हमब्रह्मचारी हैं औ हृदय में और है धनमिलैको उपाय खोजै हैं तेनर सपन्यो कबहूँ मोकोनहीं जानिसकें हैं ॥ ३ ॥ सोऐसे जे प्राणी हैं ते यहिसंसार में दुःख नानाप्रकारके पावै हैं सो हेनीवो ! तुम चेतकरौ तो इनसे न्यारा लैजाउ ॥ ४ ॥ औ जे तात्पर्य वृत्तिकरि कै मोको बतावै हैं ऐसे ने गुरु हैं तिनकी जोकोई निन्दाकरै। हैं कि, जोई वर्णन करै हैं सो सव मिथ्या है ते मरिकै श्वान अरु शूकरको जन्म धारण करै हैं ॥ ५ ॥ साखी ॥ लखचौरासीयोनिजीव, भदकिभटाकिदुखपावै ॥ कहकवीरजोरामहिं जानै, सोमोहिनीकेभावै ॥ ६॥ साहब कहै हैं कि मेरोभक्त कबीर कहैहै कि चौरासी लाख योनिमें जीव यह भटक भटक दुःख पावैहैं से तिनमें जोकोई श्रीरामचन्द्रको जानै सोई ओको भावै है । ऐसो प्रकट कबीरबतावै हैं ताहूको और औरमें अर्थकार और और लगे हैं से मौको नहीं जाने हैं ॥ ६ ॥ इति सतसठसवीं रमैनी समाप्ती । अथ अड़सठवीं रमैनी । चौपाई। तेहिवियोगते भये अनाथापरिनिकुंजवन पावनपाथा ॥१॥ वेदौ नकलकहै जे जानै । जो समुझे सो भलो नमानै॥२॥ नटवर वन्द खेल जो जाने।ताकर गुण जो ठाकुर मानै॥३॥ उहैजो रवेलै सवघटमाहीं। दूसर को लेखा कछु नाहीं॥४॥ भलो पोच जो अक्सरआवै । कैसढुकै जन पूरा पावै॥६॥