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(१५६) बीजक कबीरदास । स्थूल शरीर मंदिर उजार होइनाइ है से बिना परमपुरुष श्रीरामचन्द्र भजन ने मेरे जीवतै मरिकै चौरासीलाख योनिमें भटकनेलगे औबाचे वाचनहार कहे जे पांचौ शरीर ते बचिकै पार्षदरूप वाचन दार रहे ते बाचे ॥ ५ ॥ इति छयासटवीं रमैनी समाप्ती । अथ सतसठवीं रमैनी ।। गुरुमुख चौपाई । देहहलाये भक्ति न होई । स्वांगधरेवहुते नर जेई ॥ १॥ धिंगासिंगी भलो न माना।जोकाहू मोहिं हृदय न जाना २॥ मुखकछुऔरहृदयकछुआनासपन्यो कवहूं मोहिं नजाना३ ते दुखपावें यहि संसारा । जो चेतौ तौ होहु निनारा॥४॥ जो नर गुरुकी निन्झ करई । शूकर श्वानजन्मसो धरई साखीलखचौरासीयोनिजीव, भटकि भुटकि दुखपाव । कह कबीर जा रामहिं जानै,जो मोहिं नीके भाव६ देहहलाये भक्ति न होई । स्वाँगधरे बहुतै नर जोई ॥ १ ॥ धिंगाधिगीभलो न माना।जोकाहूमोहिंहृदय न जाना॥२॥ | देह हलाये कहे पेट हलाय कुंडलनी उठावै है औ स्वांगधरे कहे कोई खाख लगावै है कोई जटा नहीं बढ़ावै है कोई टोपीदे अलफी पहिरि कुबरी लेइ है। कोईकोई तिलकै नहीं देय है कोई बेड़ा तिलक देइ है कोई नाकते तिलक देइ हैं कोई काठफल पाषाण अस्थि इत्यादि माला पहिरै है ऎसे स्वाँगधर नरनको देखेरै सौबिना साहबके जाने भक्तिहोई है ? नहीं होइ हैं ॥१॥ धिंगधिगीकहे बड़े बड़े मालपुवा मोहनभोग खाय मोटायकै बडेबड़े धिंगा & रहे हैं औ बड़ी बड़ी चिंगी द्वैरही हैं भलो जो साँच मत ताको नहीं माने हैं साहब कहै हैं जो कोई मोको हृदयते नहीं जाने है सो मोको पाव हैं ? नहा पावै ॥२॥