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( १६२ ) बीजक कबीरदास । याज्ञात यद्यपि में सवारसमुझाऊहैं। ताहूपै ऐसो धोखाको धरयो कि छोड़ि नहींजाय सो ने जन गुरुवाजनके कहे हिलायहैं धोखाकोनहीं त्यागै हैं ॥ २ ॥ तेनवोनिद्धि पावे हैं औ निर्गुण सगुणके परेमैं जोबातकहौहौं ताकाकहाँ बूझै॥३॥ जेमकह्यो बूझहैं कि हमसाहबके हैं याधर्मजिनके हृदयमें बसैहै तेसाहबके रूपकसौटी में आपनो कंचन स्वस्वरूप कसतई रहै हैं औ जेसाहब नहींकसैहैं। गुरुवालेगनके कसावेनाइँहैं तेवेबाउरऊ निराकार ब्रह्म तामें आपही बौरायजाय हैं जो औरको और कहै सो बाउर है ॥ ४ ॥ ५ ॥ सो हे जीवो ! तुम साहब के होइकै धोखा में लगे ताहीते कालकी फांसीमें परे है। सो आपने छूटिबे को शोच करौ देखो तो जहां संत रामोपासक हैं तहैं संतजाइँहें आपनोस्वरूपजानि छूटिनाइहैं ने गुरवालोगनको उपदेश लेइ ते जीव पोचै पोच मिलिरहे हैं॥६॥ इति चौंसठवीं रमैनी समाप्ती । अथपैंसठवीं रमैनी। चौपाई ।। अपने गुणके औगुण कहहू।यसैअभाग जोतुम न विचारहू। तुमजियरा वहुतेदुखपाया। जलवनमीनकवनसचुपाया २ चातृकजलहल भरेजोपासामेघ न बरसै चलैउदासा॥३॥ स्वांग धरयोभवसागर आसाचातृजलहलआशैपासा४ रामै नाम अहै निजसारू। औ सब झूठ सकल संसारू ६ किंचित है सपनेनिधिपाई । हियनमा कहँ धरै छिपाई६॥ हार उतंग तुमजातिपतङ्गा । यमघर कियो जीवको संगा७ हियनसमायछोड़नहिंपारा ।झूठलोभ तें कछु न विचारा८ स्मृति कहाआपु नहिंमाना। तरिवर छलछागर लैजाना ९ जियदुरमति डोलै संसारा । तेहि नहिं सूझैवारनपारा १०