गुरुवे नमः। अथ श्रीकबीरजी की कथा। दोहा-अब कबीर जी की कथा, श्रोता सुनहु विशाल ।।। | जो हिंदू अरु तुर्क को, उपदेश्यो सब्य काल ॥ १ ।। हार विमुखी सब धर्मिन काहीं । कह्यो अधर्म अखंड सदाहीं ! | योग यज्ञ तप दान अचार । राम भजन विन कह्यो असार ।। कह्यो रमैनी साख जेती । अटपट अर्थ शास्त्रमय तेती ।। जो बीजकको ग्रंथ बनायो । तासु तिलक मो पितु निरमायो ।। आगे कहिहौं मति अनुसार । पूरुव पूरुष वंश विस्तारा ।। श्रः कबीरजी को इतिहासू । पूर्व पूरुष मम वर्णन तासू ।। निज कुल वर्णत लागति लाजू । जनि हैं अस सब सुमति समाजू ।। निमकुलको महत्व प्रटायो । गाथा सकल मृषा मुख गायो ।। पै श्रोता सब यदुपति दासा । ताते लागति कछु नहिं त्रासा ।। सहि लेहैं सब मोरि दिठाई । मैं न मृषा प्रभुता कछु गाई ।। जस कबीर वण्र्यो निजग्रंथा । वर्णी निजकुल सई पंथ ।। और कबीर कथा सुखदाई । प्रियादास नाभा जस गाई ॥ दोहा-सोई मैं वर्णन करों, संक्षेपहु विस्तार ॥ | प्रथमहि जन्म कबीर को, श्रोता जुन उदार ॥ २ ॥ रामानंद रहे जग स्वामी । ध्यावत निशि दिन अंतर्यामी ॥ तिनके ढिग विधवा इक नारी । सेवा करै बड़ो श्रमधारी ॥ प्रभु यक दिन रह ध्यान लगाई। विधवा तिय तनके टिग आई ॥ प्रभुहि कियो वंदन बिन दोषा । प्रभु कह पुत्रवती भार घोषा ।। तब तिय अपनो नाम बखाना । यह विपरीत दियो बरदाना ।। स्वामी कह्या निकासि मुख आयो । पुत्रवती हरि ताहिं बनायो । है है पुत्र कलंक न लागी । तव सुत हैं है हरि अनुरागी ।।
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