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( १४० )
बीजक कबीरदास ।

( १४० ) बीजक कबीरदास । न किये कि भलेलगेहूँ तुम मसखरी किये कि जो तुमहूं अहंब्रह्मास्मि मानौ तौ तुमको अनेक प्रकारकी ऋद्धिसिद्धि प्राप्त होइ है साहब को ज्ञान छॉड़िदेड्डु या भांति समुझाय नरक में डारिदिये ॥ २ ॥ अकरमकरैकरमकोधावै । पढिगुणवेद जगतसमुझावै ॥३॥ छूछे परै अकारथ जाई । कह कबीर चितचेतहु भाई ॥४॥ | कैसेहैं वे गुरुवा लोग करत तो अकरममतहैं कि हमको करमत्यागहै हम संन्या- सी हैं हम ज्ञानी हैं औ करम करिबेको धावै हैं औ वेदको पढ़ि गुनिकै जगत्को समुझावै हैं कि, निष्कर्महोउ चाहईते सब बिकारहै चाह छोड़िदेउ औ आप भायाके लिये बनारमें झगरै हैं सो उनके कहे जीवनको कैसे समुझिपरै ॥३॥ उनको उपदेश अकारथई नायौ औ जो सुनै है सो छूछई पैरैहै अर्थात् कछू- वस्तु हाथ नहीं लगे है सो कबीरजी कहै हैं कि, हे भाई ! चित चेत करो जहिते कनककामिनी रूप मायाते औ धोखाब्रह्मते बचिजाउ ॥ ४ ॥ इति छप्पनवीर मैनी समाप्ता । अथ सत्तावनवीं रमैनी । चौपाई। कृतियासूत्रलोक यकअहई।लाख पचासके आगे कहई॥१॥ विद्या वेद पढे पुनि सोई । वचन कहत परतलै होई ॥२॥ पहुंचि वात विद्या के वेतावाहु के भर्म भये संकेता ॥३॥ साखी ॥ खग खोजनको तुमपरे, पीछे अगम अपार ॥ विन परचै किमि जानिहौ, झूठाहै हंकार ॥ ४॥ कृतियासूत्रलोकयकअहई। लाखपचासकेआगेकहई ॥१॥ कृतिया कहे यह कृत्रिम जो है कर्म अहंब्रह्म मानिब सो यहलोक में एक सूत्रके बरोबरहै कहेरपरीकेबरोबरहै जीवनके बाधिवेको । मंगलमें कहि