रमैनी । { १३९) अथ छप्पनवीं रमैनी ।। चौपाई। दिनदिन जरै जरलकेपाऊ। गाड़े जाइ न उमगै काऊ॥१॥ कंध न देइ मसखरी करंई। कहुधकौनिभांतिनिस्तरई ॥२॥ अकरमकरै करमको धावे। पढिगुणिवेदजगतसमुझावै ॥३॥ छूछेपरे अकारथ जाई । कह कबीर चितचेतहु भाई ॥३॥ दिन दिन जरैजरलकेपाऊ। गाड़ेजाइ न उबरै काऊ ॥१॥ कबीरजी के हैं कि जे रोजरोज ज्ञानाग्नि करिकै कर्मकोजारै हैं अपने जीवत्वको जौरेहैं कि हम ब्रह्म हैजायँ से जरल के पाऊ कहे न काहूके कर्मही जरे न कोई ब्रह्मही भयो । अथवा जरळके पाऊ कहे जारिगये हैं कर्म नाकों अर्थात् कर्मही नहीं है ऐसो जोब्रह्म ताकाको पायो है? अर्थात् कोई नहीं पाया है । नो कहो जड़भरतादिक पायो हैं तौ वेजो ब्रह्मही है जाते तो दूसरो मानिकै रहूगणको कैसे उपदेश करते । कपिलदेव सगरकेलरकन काहे नारिदेते औ सनकादिक जय बिजयको काहे शापदेते सो तुम ब्रह्म लैबेकी आशा न करो जो संसारमें परे रहोगे तो कबहूँ सत्संग पायकै उद्धारहू होइजाइगो जो ब्रह्मरूपी गाड़ में परोगे तो गड़िजाउगे कबहूँ न उमगोगे अर्थात् तिहारो कतहुँ उद्धार न होइगो ॥ १ ॥ कंधनदेइ मसखरी करइ । कडुधकौनभाँतिनिस्तरई ॥२॥ कहो या कौनी भांति ते जीवको निस्तारहोय समीचीनसाधुनको सत्संग तो मिले नहीं है गुरुवा लोगको सत्संग मिलैहै ते मसखरी करै हैं । मसखरी कौन कहावें जो आपतो जानै औ औरेनको ठगै सो गुरुवालोग आपतो जानै हैं कि या झूठीब्रह्ममें हम लागे हमारे हाथ कछुवस्तु न लागी ब्रह्म न भये परन्तु ओसाहबमें लगैहै जीवतिनकाकांधातानदिये अर्थात् उनको ज्ञान अधिक पुष्ट तों
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रमैनी ।