(१२८) बीजक कबीरदास । अथ उनचासवीं रमैनी । | चौपाई। दुरकीवात कही दुर्वेशा। वादशाह है कौने भेशा ॥ १ ॥ | कहां कूच काँकरै मुकामा।कौनसुरतिकोकौंसलामा ॥२॥ मॅतोहिं पूंछौं मूसलमाना। लाल जर्दकी नाना बाना ॥३॥ | काजीकाज करो तुमकैसा। घर २ जबै करावो वैसा ॥४॥ वकरीमुर्गीकिनफ़रमाया।किसकेहुकुमततुमछुरीचलाया। दर्द न जानै पीर कहावै । वैता पढ़ि २ जग समुझावै ॥६॥ कहकवीरयकसय्यदकहावै।आपुसरीका जगकबुलावै ॥७॥ साखी ॥ दिन भर रोजा धरतही, राति हततही गाय ॥ यहतौखून वहवंदगी, क्योंकर खुशीखोदाय ॥८॥ और पदको स्पष्टही है ॥ १ ॥ २॥ ३ ॥ ४ ॥ ५ ॥ दर्दतो तिहार दिल में अग्तिी नहीं है. गळफटावतमें अल्लाहको बागीचा खराच करतेहै। अरु!!! बैतें पट्टि २ के परिकहावतेही औजगत् को समुझावतेही अर्थात् हौ बेपीर पौर- भर कहावतेहो ॥६॥सोकबीरजी कहै हैं कि एक सय्यदञहै वह पीर गुरुवा सों जैसा आप खुआरेहै औ तैसे सबको खुआरकरै है ॥७॥ दिनको तो रोजा धरते हौ औ बंदगी करतेहै। औ रातिको गाईहततेही कहे मारतेहौ सो यह तो स्कूनकरतेहौ बहुतभारी औं वहबन्दगी बहुसथोरी करतेहौ दिनको न खायो राति- दो खायो क्योंकर तिहारेऊपर खोदाय खुशी होय ताते यह कि वह तौ साहबको है सो निनको गला तुम काटतेही तिनहीं के हाथ तुम्हारऊ गला वह साहब कटावेंगे ॥ ८ ॥ इति उनचासावीं बैनी समाप्ती ।।
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बीजक कबीरदास ।