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रमैनी।। (११९) अलणं ।। (येनाश्रुतंश्रुतंभवत्यमतंमतमविज्ञातं विज्ञातं भवति) {{तही दिठयार ने साहबके देखनवारै ते वाई श्रुतिनमें साहबमुख अर्थ देखे हैं कैसे जैसे येनाश्रुतं श्रुतं कहे जौने रामनामके सुने जो नहीं सुना है सोऊसुनै असहोइजाई। काहेते वेदशास्त्र पुराणादि रामनामहाते निकसे हैं औ जौने रामनामके जानेते यह जो असत्य है सर्वत्र ब्रह्ममानिबो धोखा सो मत हाइ जाइहै अर्थात् परमपुरुष श्रीरामचन्द्रको चितचित बिग्रही सब को माने है औ मन बचनके परे ने अविज्ञात साहब ते रामनाम साहबमुख अर्थ में व्यजित होय हैं अथवा रामना मको जानिकै साधन किहेते साहब हंसरूप दै तब जाने जाइहै ॥ ४ ॥ यहिविधिकमानुजोकोई । जसमुखतसजोहृदयाहोई॥६॥ कहहिंकवीरहँसमुसकाई । हमरे कहले छुटिहौ भाई॥ ६ ॥ । सो याभांतिते मैं सब जीवनको ममुझाऊँहौं पैकोई बिरला मनैहै कौन मानैहै जौन जस मुखते है तैसे हृदयते होइहै ॥ ५ ॥ कबीरजी के हैं कि मुसकाई मुसकैबँधी जीवोहमारेही कहेते तुम इटौगे औरि भांति न छूटगे मुकुताई पाठहोय तौ याअर्थ मुक्तिहोबेकीहैइच्छाजनके ॥ ६ ॥ इति बयालीसवीं रमैनी समाप्ती ।। अथ तेंतालीसवीं रमैनी। | चौपाई ।। जिनजिवकीन्हआयुविश्वासानिरकगयेतेहिनरकहिवासा १ आवत जात न लागहि वाराकालअहेरी सांझ सकारा२॥ चौदहिवद्यापढ़ि समुझावै।अपनेमरनाक खरि न पावै॥ | जाने जिवको परा अंदेशा । झूठ आनिकै कहै संदेशा॥४॥ | संगतिछोड़ि करै असरारा । उहै मोट नरककी धारा॥८॥